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________________ चारित्र चक्रवर्ती नग्नमुनि बनने का अद्भुत नाटक नहीं खेलते। मुनिपद में हिंसादि पापों का सार्वकालिक परित्याग होता है, यह बात उनकी समझ में आई होती, तो वे कुछ समय दिगंबर बन, पश्चात् क्रीड़ा कौतुक में कभी भी संलग्न न होते। प्रत्यक्ष में मुनि दर्शन न होने से भाव द्वारा वंदना जब मनुष्य को वास्तविक सत्य रूप का दर्शन नहीं होता है, तब वह काल्पनिक जगत में भ्रमण करता हुआ उपहास पूर्ण प्रवृत्ति करता है। भूधरदास जी आदि प्राचीन हिन्दी के विद्वानों की रचनाओं के स्वाध्याय से यही बात झलकती है कि उन मुनि-भक्त नर रत्नों के नेत्र जिनमुद्रा धारी मुनि-दर्शन के लिए सदा प्यासे ही रहे आए, इसलिए वे अपनी रचना में चतुर्थ कालीन वज्रवृषभसंहननधारी दिगंबर गुरुओं की भक्ति करते हुए उनका ही इस काल में सद्भाव विचारा करते थे। अपनी मुनि-दर्शन की लालसा को वे गुरु स्तुति में इस प्रकार व्यक्त करते हैं : वंदो दिगंबर गुरु चरण जग तरनतारन जान । जे करम भारी रोग को द्वै राज वैद्य समान । जिनके अनुग्रह बिन कभी नहिं कटे कर्म जंजीर । ते साधु मेरे उर बसहु मम हरहु पातक पीर ॥१॥ वे यही सोचते थे कि पंचम काल में भी मुनिजन पर्वत के शिखर पर सदा कष्ट सहन किया करते हैं, इसलिए वे स्तुति में कहते हैं : जे बाह्य पर्वत वन बसें, गिरि, गुफा, महल, मनोग । सिल-सेज, समता-सहचरी, शशि-किरण, दीपक जोग । मृग-मित्र, भोजन तप मयी, विज्ञान निर्मल नीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर ॥ ४ ॥ ऐसे मुनियों का जीवन में कभी दर्शन लाभ हो तो वह दिन धन्य होगा, यह विचारते हुए वे कहते हैं - कर जोर 'भूधर' बीनवै कब मिलहि वे मुनिराज । यह आस मन की कब फलै, मम सरहिं सगरे काज । संसार विषम विदेश में जे बिना कारण वीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर ॥ ८ ॥ कविवर उपरोक्त दृष्टि को दूसरी मनोरम रचना में भी इस प्रकार व्यक्त करते हैं - ते गुरु मेरे मन बसो, जो भव जलधि जिहाज । आप तिरहिं पर तारहिं, ऐसे श्री ऋषिराज । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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