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________________ वातावरण आधुनिक परिस्थिति का चिन्तन आत्मविशुद्धता को प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा बनने के लिये जैन संस्कृति में सर्वज्ञ वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु तथा अनेकान्तमय जिनवाणी की आराधना प्राथमिक स्थिति में आवश्यक मानी गयी है। प्रतिदिन की पूजा में गृहस्थ “अरिहंत श्रुत सिद्धांत गुरू निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ" यह पाठ पढ़ता है। वर्तमान युग में संहनन की हीनता के कारण सर्वज्ञता की उपलब्धि के हेतु शुक्लध्यान की समाराधना संभव नहीं है । अतएव सर्वज्ञ देव मनोमंदिर में वंदना के योग्य हो गये हैं अथवा स्थापना-निक्षेप द्वारा प्रतिमा के रूप में पूजनीय हैं। जिनेन्द्र की वाणी, जीवों का उपकार करती हुई, आज भी सर्वज्ञ-शासन का प्रकाश भव्य जीवों को प्रदान कर रही है। निर्ग्रन्थ गुरु का दर्शन परम कल्याणकारी माना गया है, किन्तु पाप-प्रचुर पंचम काल के प्रताप से साधारण संयम की साधना संकट संकुल बन रही है, अतः सम्पूर्ण पापों का पूर्णतया परित्याग कर, महाव्रती मुनिराज के दिगंबर स्वावलम्बी जीवन को व्यतीत करने वाले महामुनियों का प्रादुर्भाव आज के लोगों को असंभव सा दिखा करता था। उत्तर भारत में दिगंबर जैन मुनियों का दर्शन करने का श्रावकों को सैकड़ों वर्षों से सौभाग्य लाभ नहीं हुआ, ऐसा प्रतीत होता है। शाहजहाँ बादशाह के समकालीन विद्वान् कवि बनारसीदासजी के आत्मचरित्र अर्द्ध कथानक' से ज्ञात होता है कि साक्षात् दिगंबर गुरु का दर्शन न होने के कारण वे अजानकारीवश विचित्र प्रवृत्ति में तत्पर थे। वे लिखते हैं कि चंद्रभान, उदयकरण और थानसिंह नामक मित्रों के साथ अध्यात्म की चर्चा करते हुए, वे एक कमरे में नग्न होकर फिरते थे और समझते थे कि हम निर्ग्रन्थ मुनिराज बन गये हैं। यदि सकल संयमधारी दिगंबर मुनि का दर्शन उन्हें हुआ होता, तो वे चंद्रभान बनारसी उदय करन अरु थान । चारों खेलहिं खेल फिर, करहिं अध्यातम ज्ञान ॥६०२ ॥ नगन होहिं चारो जनें, फिरहि कोठरी मांहि । कहहिं भए मुनिराज हम, कछु परिग्रह नाहिं ॥ ६०३ ।। गनि गनि मारहिं हाथसों, मुखसों करहिं पुकार । जो गुमान हम कर गहे, ताके सिर पैजार ॥ ६०४ ।। गीत सुनै बातें सुनहिं ताकी बिंग बनाइ । कहैं अध्यातम मय अरथ, रहैं मृषा लौ लाइ ॥ ६०५ ।। - अर्द्ध कथानक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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