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________________ चारित्र चक्रवर्ती जाता है। वज्रवृषभसंहनन धारी सहज ही अनेक उपवास और बड़े-बड़े कष्ट सहन करने में समर्थ होते थे। आज का अल्प संयम पुरातन कालीन बड़े संयम के समान आत्म दृढ़ता चाहता है। जैसे एक करोड़पति किसी कार्य के लिये एक लाख रुपये का दान करता है और दूसरा हजारपति नौ सौ रुपये उस कार्य के हेतु देता है, इन दोनों दानियों में अल्प द्रव्य देने वाला दानी असाधारण महत्व धारण करता है, क्योंकि उसका त्याग महान् मनोबल और उदारता का ज्ञापक है। इसी प्रकार आज के व्यक्ति का मुनि बनकर सकल संयम का धारण करना कम चमत्कार की बात नहीं है। आचार्य वामदेव ने लिखा है - "आज संहनन हीन है, काल भयंकर है, मन चंचल है, फिर भी महाव्रत के भार को धारण करने वाले सकल संयमी सत्पुरुष पाये जाते हैं।" ___ यदि काल आदि की भीषणता को भूल, कोई शीत, उष्ण, वर्षा आदि के कष्ट को चतुर्थ काल के समान सहन करे, तो इस शरीर रूपी पिंजड़े के शीघ्र नष्ट होने से आत्मदेव को असमय में ही लोकान्तर को प्रयाण करना होगा। उत्तर में मुनि-दर्शन का अभाव तथा संयम संबंधी विरुद्ध कल्पना उत्तर भारत में मुनि-दर्शन होना असंभव सरीखा समझा जाता था। इतना ही नहीं, उच्च श्रावक का जीवन व्यतीत करने वाली आत्मायें भी दृष्टिगोचर नहीं होती थी। उस समय चरित्र के समान ज्ञान की ज्योति भी अत्यंत क्षीण सी दिखती थी। जो तत्त्वार्थ सूत्र तथा भक्तामर स्तोत्र का मूल पाठ कर लेता था, वह आज के प्रकाण्ड पंडितों से अधिक सम्मान और श्रद्धा का पात्र समझा जाता था। उस समय धार्मिकता के रस से भीगे अंत:करण वालों को भाई जी या भगत जी कहा जाता था। वे लोग सोचते थे कि आज का काल, व्रतादि, प्रतिमाओं का पूर्णतया पालन करने के भी प्रतिकूल है। इसलिये वे अपने पापभीरु मन द्वारा शास्त्रों से चुनी गयी बातों का अद्भुत संग्रह करके उसे जीवन का पथ प्रदर्शक जानते थे। उनमें अनेक बातें ऋषि-प्रणीत आगम से मेल नहीं खाती थी । उदाहरणार्थ दौलतरामजी ने अपने ‘क्रिया-कोष' में रात्रि-भक्त-त्याग नामक छटवी प्रतिमा में गृहस्थ को रात्रि में मौन धारण करने का वर्णन किया है। उस पर श्रावक धर्म संग्रह' में धर्मात्मा श्रावक सोधिया दरयावसिंह जी पृष्ठ २४७ लिखते हैं, “उसका भाव ऐसा भाषता है कि भोजन व्यापार आदि सम्बन्धी विकथा न करे, धर्म चर्चा का निषेध नहीं।" आगम के संप्रति दुःषमेकाले नीच संहननाश्रयात् । संजाता नगरग्राम जिनावासवासिनः ॥ २७२ ॥ नीच संहननः कालो दुसहश्चपलं मनः । तथापि संयमोधुक्ता महाव्रत धुरंधरा ॥ २७६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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