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चारित्र चक्रवर्ती था स्वच्छ, अच्छ व अतुच्छ चरित्र तेरा, था जीवनातिभजनीय पवित्र तेरा । ना कृष्य देह तब जो तप साधना से, यों चाहते मिलन आप शिवांगना से ॥ २६ ॥ प्रायः कदाचरण युक्त अहो धरा थी, सन्मार्ग रूढ़ मुनि मूर्ति न पूर्व में थी । चारित्र का नव नवीन पुनीत पंथ,
जो भी यहां दिख रहा तव देन संत ॥ ३० ॥ ज्ञानी विशारद सुशर्म पिपासु साधु, औ जो विशाल नर नारि समूह चारू । सारे विनीत तव पाद - सुनीरजों में, आसीन थे भ्रमर से निशि में, दिवा में ॥ ३१ ॥
संसार' सागर असार अपार खार, गम्भीर पीर सहता इह बारबार । भारी कदाचरण भार विमोह धार, धिक् धिक् अतः अबुध जीव हुआन पार ।। ३२ ।। थे शेडबाल गुरूजी इक बार आये, इत्थं अहो सकल मानव को सुनाये । "भारी प्रभाव मुझ पै तब भारती का,
देखो पड़ा इसलिये मुनि हूँ अभी का" ॥ ३३ ॥ अच्छे बुरे सब सदा न कभी रहे हैं, औ जन्म भी मरण भी अनिवार्य ही है । आचार्यवर्य गुरूवर्य समाधि लेके, सानन्द देह तज, शान्ति' गये अकेले ॥ ३४ ॥
हे ! तात ! ! घात !! पविपात ! ! हुआ यहाँ पै, आचार्यवर्य गुरूवर्य गये कहाँ पै ? जन्में सुरेन्द्रपुर में, दिवि में जहाँ पै, हूं भेजता 'स्तुति सरोज' अत: वहां पै ॥ ३५॥
॥प्रशस्ति॥ संतोष - कोष गत रोष 'सुशान्ति - सिन्धु', मैं बार-बार तब पाद सरोज वन्दूँ । हूँ ज्ञान का प्रथम शिष्य', अवश्य बाल, विद्या' सुशान्ति पदमेंधरतास्व-भाल ॥३६ ॥
॥श्री शांतिसागराय नमः॥
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