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श्री शांतिसागर स्तवन
५८४ माता अहो ! भयानक - काननी में, कोई नहीं शरण है इस मेदिनी में । सद्धर्म छोड़ सब ही दुखदायिनी है, वाणी जिनेन्द्र कथिता सुखदायिनी है ॥ १६ ॥
माधुर्य - पूर्ण समयोचित भारती को, माँ को कही सजल - लोचन - वाहिनी को। रोती तथा बिलखती उर पीट लेती, जो बीच-बीच रूकती, फिर श्वाँस लेती ॥ २० ॥ विद्रोह, मोह, निज - देह - विमोह छोड़ा, आगे समोक्ष - पथ से अति नेह जोड़ा । 'देवेन्द्रकीर्ति' यति, से वर भक्ति साथ,
दीक्षा गही, वर लिया, वर मुक्ति पाथ ॥ २१ ॥ गम्भीर, पूर्ण, सुविशाल - शरीरधारी, संसार - त्रस्त जन के द्रुत आर्तहारी । औवंश - राष्ट्र-पुरदेशसुमाननीय, जोथेसु- 'शान्ति' यतिनायकवन्दनीय ॥ २२ ॥
विद्वेष की न इसमें कुछ भी निशानी, सत्प्रेम के सदन थे, पर थे न मानी । अत्यन्त जो लसित थी, इनमें (अ) नुकम्पा, आशा तथा मुकुलिता अरू कोष चंपा ॥ २३ ॥ थे दूर नारि कुल से, अति - भीरू यों थे, औ शील - सुन्दर - रमापति किन्तु जो थे । की आपने न पर या वृष की उपेक्षा,
थी आपको नित शिवालय की अपेक्षा ॥ २४ ॥ स्वामी, तितिक्षु, न बुभुक्षु, मुमुक्षु जो थे, मोक्षेच्छु रक्षक, न भक्षक दक्ष औ थे । यानी, सुधी, विमल - मानस- आत्मवादी, शुद्धात्म के अनुभवी, तुम अप्रमादी ॥ २५ ॥
निश्चिंत हो, निडर, निश्चल, नित्य भारी, थे ध्यान - मौन धरते तप औ करारी । थे शीत ताप सहते, गहते न मान, ते सर्वदा स्वरस का करते सुपान ॥ २६ ॥ शालीनतामय सुजीवन आपका था, आलस्य, हास्य विनिवर्जित शस्य औ था । थी आपमें सरसता व कृपालुता थी,
औ आप में नित नितान्त कृतज्ञता थी ॥ २७ ॥ थे आप शिष्ट, वृषनिष्ठ, वरिष्ठयोगी, संतुष्ट थे, गुणगरिष्ठ, बलिष्ठ यों भी । थे अन्तरंग, बहिरंग, निसंग नंगे, इत्थं न हो यदि, कुकर्म नहीं कटेंगे ॥ २८ ॥
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