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________________ तिहत्तर चारित्र चक्रवर्ती- एक अध्ययन को हम इस संदर्भ में आचार्य श्री के ही श्री मुख से सुनें (पृष्ठ १२०,१२१) महाराज कहने लगे-“हमें हरिजनों को देखकर बहुत दया आती है। हमारा उन बेचारों पर रंचमात्र भी द्वेष नहीं है। गरीबी के कारण वे बेचारे अपार कष्ट भोगते हैं। हम उनका तिरस्कार नहीं करते हैं। हमारा तो कहना यह है कि उन दीनों का आर्थिक कष्ट दूर करो, भूखों को रोटी दो। उसका आर्थिक व नैतिक जीवन ऊँचा उठाओ। तुमने उनके साथ भोजन-पान कर लिया, तो इससे उन बेचारों का कष्ट कैसे दूर हो गया ?" महाराज ने ये भी कहा-“बेचारे शुद्रों तथा गरीबों का उद्धार राजसत्ता कर सकती है। वह हमसे पूछे तो? वह यदि हमसे पूछे, तो हम उनके उद्धार का सच्चा मार्ग बतावें॥" परतंत्र भारत की कथा तो दूर करो, किंतु स्वतंत्र भारत के शासन ने भी हरिजनोंद्धार के नाम पर हरिजनों से संबंधित अस्पर्शादि भावुक मसलों को ही तुल दिया, हरिजनों के आर्थिक व नैतिक उत्थान हेतु किये जाने वाले किसी मिशन को नहीं। इस संबंधि किसी कर्म को करना तो दूर, उसका चिंतन तक नहीं किया गया। हरिजनोद्धार के लिये कार्य करने वाले शासन का लक्ष्य वोट बैंक व अखबारों की सुर्खियों तक ही सीमित रहा। ___ आचार्य श्री का प्राण तो आगम था॥ आगम का लोप कर आचार्य श्री का अस्तित्व ही नहीं था। हरिजनोद्धार के पक्ष में तो आचार्य श्री थे, किंतु हरिजनों के साथ रोटी-बेटी के व्यवहार की वकालत करने वाले आंदोलनकारियों के पक्ष में नहीं॥ यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जिनागम में शुद्रों का समावेश कहाँ है अथवा शुद्रों के पर्यायवाची रूप में वह किन शब्दों का प्रयोग करता है ? ___जिनागम में शुद्रों के लिये जिस शब्द का प्रयोग है, वह है दास-दासी, जिन्हें कि हम नौकर-चाकर कहते हैं, व इनका समावेश १० प्रकार के परिग्रहों में किया गया है। __ वे जो दास-दासी रखने की सामर्थ्य रखते हैं, वे इन्हें अपनी सुविधाओं के भोग के लिये रखते हैं।। अर्थात् दास-दासी सुख के भोग के लिये होते हैं। निश्चित ही इस विवेचना में संसार के किसी भी मत वाले का विरोध नहीं होगा, फिर वो चाहे जिस पक्ष का हो, क्यों कि इस कारण से अन्य कारण के लिये दास-दासी पाले ही नहीं जाते हैं। ___परिग्रह के भी दो भेद हैं, एक सेवनीय व दूसरा असेवनीय अथवा किंचित् सेवनीय॥ इनमें से वह परिग्रह जो कि असेवनीय है, वह सर्व प्रकार से त्याज्य कहा है, किंतु जो किंचित् सेवनीय कहा गया है, वह किसी अपेक्षा से सेवनीय होता है, तो किसी अपेक्षा से असेवनीय ।। दासी-दासों के साथ किये जाने वाले व्यवहार के गर्भ में यही दर्शन मुख्य है, क्यों कि दासी-दास भी किसी अपेक्षा से सेवनीय होते हैं तो किसी अपेक्षा से असेवनीय॥ सर्वथा सर्व प्रकार के व्यवहार के वे योग्य नहीं होते। इसे नीति शास्त्र के नियमों के अनुसार भी समझा जा सकता है। नीतिशास्त्रगत् नियम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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