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चौहत्तर
चारित्र चक्रवर्ती
है कि व्यवहार बराबरी वालों के साथ होता है। जो अपने से बड़े होते हैं, उनके चरण छुए जाते हैं । उनके उपयोग में आने वाली वस्तुओं का संरक्षण व संस्कार किया जाता है, उनका सेवन नहीं किया जाता ।। अथवा उनके द्वारा उपभोग कर छोड़ दी गई वस्तुओं का सेवन किया जाता है, उनके उपभोग के पूर्व अथवा अपने द्वारा भोगी गई वस्तुओं का सेवन उन्हें नहीं कराया जाता। उनके पीछे-पीछे चला जाता है, उनके आगे-आगे नहीं, उनके बैठने के बाद बैठा जाता है, बैठने के पूर्व नहीं, उनके छोटे से छाटे कार्य को करने में भी हर्ष का अनुभवन होता है, उनकी सेवा में सतत उपस्थित रहा जाता है ।
सेवा प्रयोजन के अनुसार भिन्न-भिन्न हो जाती है व सेवा करने वाले भी ।। इनमें भी पुनः कुछ स्पर्श अथवा सामीप्य विधानानुसार सेवा देते हैं, तो कुछ अन्तर अर्थात् दूरी के विधानानुसार ॥ इनमें से जो सामीप्य विधानानुसार सेवा देते हैं, वे स्पर्श्य के योग्य दासीदास कहलाते हैं व जो अन्तर अर्थात् दूरी के विधानानुसार सेवा देते हैं, वे अस्पर्श्य दासीदास कहलाते हैं | चूँकि सेवा ग्रहण के सिवाय इन दासी - दासों के साथ स्वामियों का अन्य कोई प्रयोजन ही नहीं होता, अतः इनके साथ न तो रोटी का ही व्यवहार प्रसिद्ध है और न ही बेटी का । इसी प्रकार दासी दासों की भी अपेक्षा है कि उन्हें भी प्रयोजन अपनो सेवाओं को देने से रहता है, अन्य कोई नहीं, अतः दासी - दासों में भी स्वामियों के साथ न तो रोटी का ही व्यवहार प्रसिद्ध है और न ही बेटी ॥
उपर्युक्त उल्लेखित अंतर चूँकि संस्कृति के उत्थान काल से ही था, है और रहेगा, अतः इसे संसार में हो रहे आंदोलन इनके स्वरूप मेंइ तो परिवर्तन कर सकते हैं, किंतु समाप्त नहीं कर सकते, अतः हरिजनोंद्धार रोटी-बेटी के व्यवहार से नहीं, अपितु हरिजनों के आर्थिक व नैतिक उत्थान से होगा आचार्य श्री का यह दर्शन सर्वांग व सर्व प्रकार से शुद्ध प्रतीत होता है ।
इसी दिशा में आचार्य श्री ने अद्भूत व अद्वितीय कार्य किये व हजारों हरिजनों व आदिवासियों के जीवन को संयम के धन से धन्य कर दिया ||
इस विषय में स्थिति इतनी विचित्र हुई कि कई उच्च गोत्रियों ने इन दासी - दासों में व्रतों का उत्साह देख कर व्रतों के प्रति उत्साह प्राप्त किया ।।
आचार्य श्री के इसी कार्य ने जनोत्कर्ष से प्रभावित होने वालों को अचंभित कर दिया व उन्हें कहना पड़ा कि : सैकड़ों कर्मठ विद्वानों के सैकड़ों वर्षों तक रात-दिन परिश्रम करने पर जो समाजोत्थान व समाज कल्याण का कार्य अति कठिनता से हो सकता था, वह आचार्य शांतिसागर के विहार से कुछ ही दिनों में सरलतया हुआ (आचार्य शांतिसागरजी का चरित्र, संस्करण सन् १९३४, पृष्ठ ४ ) ।।
यह तो मात्र एक उदाहरण हुआ किंतु इस विषय में और भी उदाहरण है, उन समस्त उदाहरणों में बाल-विवाह प्रतिबंधक कानून का है । आचार्य श्री की ही सत्प्रेरणा से व
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