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________________ बहत्तर चारित्र चक्रवर्ती कासलीवाल, इन्दौर, ६)पं. श्रीलाल जी पाटनी, अलीगढ़, ७) पं. इन्द्रलाल जी शास्त्री, जयपुर, ८) पं. सुमेरुचंद्र जी दिवाकर, सिवनी, ६) पं. तनसुखलाल जी काला, नांदगांव, १०) पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री, कटनी, आदि आदि आदि। ___ उपर्युक्त नाम तो मात्र इशारे भर हैं, जबकि इनकी संख्या सैकड़े में है। इसमें भी पुनः पाठकों की सुविधा के लिये उत्तर भारतीय विद्वानों के नाम ही दिये हैं, दक्षिण भारतीयों के नहीं। दक्षिण भारतीय विद्वानों के नाम भी यदि इसमें सम्मिलित कर लिये जाएँ, तो संख्या सैकड़े में नहीं, अपितु सैंकड़ों में हो जायेगी। ___ इन नामों को पाठक वृंद से भव तारणी प्रार्थना करते हुए हम कहना चाहते हैं कि हमारी ही तरह वे भी उपर्युक्त नामों को उपलक्षण न्याय से ग्रहण कर शेष प्रज्ञावानों के नामों की कल्पना करते हुए, जैसे ये परीक्षा प्रधानी आचार्य श्री की परीक्षा कर उन्हें निर्दोष पाते हुए उनके चरणों में श्रद्धावनत हुए, वैसे ही इन परीक्षा प्रधानियों को प्रमाण मानते हुए आचार्य श्री को प्रज्ञा व चर्या दोनों अपेक्षाओं से निर्दोष जानते हुए श्रद्धावनत होवें ॥ ४) जनोत्कर्ष व निर्बलोत्थान से प्रभावित : हममें से ही कई हैं जिन्हें धर्म का पहला पाठ जनकल्याण व निर्बलोत्थान के लिये किये गये कर्म लगते हैं। जिन साधुओं वसन्तों के जीवन में जन कल्याण व निर्बलोत्थान के भाव नहीं होते, उनका ज्ञान, चारित्र, तप, परिषह जय आदि गुण इन्हें अनुल्लेखनीय, निरस व अप्रभावी लगते हैं। ___ यहाँ आश्चर्य उत्पन्न करने वाला विषय यह है कि जिनकी प्रतिष्ठा लोकोत्तर कार्यो के संपादक रूप ही प्रसिद्ध हुई, वैसे आचार्य श्री के पास लौकिक कृत्यों को ही उत्तम परिभाषित करने वाले इन महामनाओं को भी आकृष्ट करने वाला सशक्त चुम्बकीय व्यक्तित्व था। इस संदर्भ में हम दो सशक्त उदाहरण चारित्र चक्रवर्ती, संस्करण १६६७,पृष्ठ १२०,१२१ व पृष्ठ ३६८ से लेकर दे रहे हैं। इनमें से प्रथम पृष्ठ १२० व १२१ से :___ यह वो काल था जब हरिजनोद्धार के नाम पर कई अवैज्ञानिक व भावुकता प्रधान कार्य हो रहे थे। इन अवैज्ञानिक व भावुकता प्रधान कार्यों में से एक उदाहरण एक हरिजन के ही मुख से ही हम सुनें तो संभवतः उत्तम होगा :"(जयपुर,सन् १९३२)उस समय अस्पृश्योद्धार के नाम पर अनेक लोगों ने मेहतरों के यहाँ का मैला एक दिन साफ किया था, उस समय जयपुर का एक चतुर मेहतर महाराज से कह रहा था-"महाराज! ये लोग हमें कुछ लेते-देते नहीं है और अब हमारी रोजी छीनने को भी तैयार हो रहे हैं। यदि इन्होंने हमारा काम शुरु कर दिया, तो हमारा जीवन कठिन हो जायेगा॥" अर्थात् समाजोद्धारकों का हरिजनोद्धार के नाम पर स्पर्शता निवारण ही लक्ष्य था, हरिजनों का धर्म, अर्थ व कामोत्कर्ष नहीं। इसके विपरीत आचार्य श्री धर्म, अर्थ व कामोत्कर्षता को हरिजनों के जीवन में देखना चाहते थे। आईये आचार्य श्री के वचनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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