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________________ चारित्र चक्रवर्ती - एक अध्ययन इकहत्तर अर्थ : वह राजविद्या के सब तत्वों को जानता था, धर्मशास्त्रों के तत्वों का जानकार था और कलाओं के ज्ञान में वह प्रसिद्ध था, इस प्रकार वह बुद्धिमान् लोगों के मस्तकपर सुशोभित होता था अर्थात् सबमें मुख्य था ॥ १५४ ॥ ऐसी ही विशाल प्रज्ञा श्री १०८ आचार्य शांतिसागर की है। इसमें जरा भी संदेह नहीं है।। अनेकों ने अनेक बार आजमा लिया है | और अब भी यह सौ टंचका सुवर्ण परीक्षा के लिये प्रत्यक्ष सज्ज है। मध्य कलियुग में यह एक मनु ही अवतरा है, जो संपूर्ण धर्मसृष्टि को इस युग में फिर से निर्माण करेगा ।। ( आ. श्री शांतिसागर महामुनि का चरित्र, सन् १९३४, पृष्ठ-११७.) ऐसा ही एक उदाहरण चारित्र चक्रवर्ती (संस्करण १६६७ ) के पृष्ठ १०० पर है“सन् १९५१ भाद्रपद के पश्चात पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री, कटनी, पं. मक्खनलाल जी न्यायालंकार, मौरेना, पं. उल्फतराय जी, बंबई, तथा और भी बहुत से विद्वान महाराज के पास बारामती में पधारे थे और चर्चा के समय महाराज की प्रतिभा का वैभव देखकर चकित होते थे | इतना असाधारण क्षयोपशम सतत् श्रुत का अभ्यास तथा तपश्चर्या का सुपरिणाम है | " इसी प्रकार का एक और प्रसंग है जो कि आचार्यश्री के अद्भूत व अद्वितीय श्रुताभ्यास की सूचना देता है || देखिये - “एक दिन महाराज कहते थे - हम प्रतिदिन में कम से कम ४० या ५० पृष्ठों का स्वाध्याय करते हैं | धवलादि सिद्धांत ग्रंथों का बहुत सुंदर अभ्यास महाराज ने किया था। अपनी असाधारण स्मृति तथा तर्कणा के बल पर वे अनेक शंकाओं को उत्पन्न कर उनका सुंदर समाधान करते थे । (पृष्ठ १०१, चारित्र चक्रवर्ती, संस्करण १९९७)” यह तो आचार्य श्री के प्रज्ञाधन कीचर्चा हुई, किंतु परीक्षा प्रधानियों द्वारा की गई परीक्षा का एक और उदाहरण हम देना चाहेंगे । यह उदाहरण कटनी (म. प्र. ) का है, सुनिये - "कुछ शास्त्रज्ञों ने सूक्ष्माता से आचार्य श्री के जीवन को आगम की कसौटी पर कसते हुए समझने का प्रयत्न किया | उन्हें विश्वास था कि इस कलिकाल के प्रसाद से महाराज का आचरण भी अवश्य प्रभावित होगा, किन्तु अन्त में उनको ज्ञात हुआ कि आचार्य महाराज में सबसे बड़ी विशेषता सबसे बड़ी बात यही कही जा सकती है कि वे आगम के बंधन में बद्ध प्रवृत्ति करते हैं, अपने मन के अनुसार स्वछंद प्रवृत्ति नहीं करते। (पृष्ठ १८७, चारित्र चक्रवर्ती, संस्करण १९६७, उपशीर्षक- आगमभक्त, मूल शीर्षक- प्रभावना ) " इस प्रकार इतना विवेचन करके अब हम उन महान प्रज्ञावानों में से कुछ का नाम दे रहे हैं, जिन्होंने आचार्य श्री की चर्या व प्रज्ञा दोनों की परीक्षा की, परीक्षा कर उसे निर्दोष पाया व निर्दोष पाने के पश्चात अपना सर उनके श्री चरणों में नवा दिया : १) पं. खूबचंद जी शास्त्री, इन्दौर, २) पं. मक्खनलाल जी शास्त्री, मौरेना, ३) पं. उल्फतरायजी, बम्बई, ४) पं. बंशीधर जी शास्त्री परवार, सोलापुर, ५) पं. धन्नालाल जी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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