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________________ अड़सठ चारित्र चक्रवर्ती नहीं है। उपर्युक्त घटना में तो सर्प ने सिर्फ लीला की, आचार्य श्री को आहत नहीं किया, किन्तु कई उपसर्ग तो आचार्य श्री पर ऐसे भी हुए , जिसमें उपसर्ग कर्ता ने तो उनपर परिषहों की अति ही कर दी थी। इन उपसर्गों में एक उपसर्ग मकोड़े द्वारा किया गया था। सामायिक में बैठे आचार्य श्री के लिंग को वह मकोड़ा करीब-करीब दो घंटों तक कुरेदता रहा व लगातार रक्त वहाँ से रीसता रहा, किंतु इस योगी के चेहरे पर उफ् तक नहीं।। मानो साक्षात् भेद विज्ञान में स्थिर हो, जड़ की क्रिया जड़ में हो रही हो और चेतन की चेतन में, मैं तो मात्र ज्ञाता दृष्टा हूँ, ज्ञाता दृष्टा से अन्य कुछ भी नहीं। यह उपसर्ग इतना भयावह था कि देखने वालों के मुख से उफ् निकल गई थी। __इससे भी अधिक घातक उपसर्ग कागनोली में हुआ था। जंगल में अकेले ध्यानमग्न आचार्य श्री से पागल ने रोटी माँगी। ध्यान अवस्था में मग्न आचार्य श्री से जब कोई उत्तर नहीं आया, तब थक जाने की हद तक वह लकड़ी से आचार्य श्री को पीटता रहा। लहुलुहान आचार्य श्री के चेहरे पर इस घटना की प्रतिक्रिया रूप कोई भाव नहीं थे, मानो राह चलते कोई कागज का टुकड़ उड़ा, लगा व गिर गया हो। एक अलौकिकता और थी आचार्य श्री में और वह यह कि इन उपसर्ग कर्ताओं को वे अपना उपकार कर्ता मानते थे, उनके प्रति वे द्वेष नहीं रखते थे, अपितु क्षमा भाव वर्तता था उनके भीतर। राजाखेड़ा में छिद्दी ब्राह्मण अपने ५०० अनुयायियों के साथ आहत करने का भाव ले दौड़ा आया तलवार व लट्ठ ले, आचार्य श्री व संघ की ओर। दैव प्रबल था। अनहोनी कुछ नहीं हुई। लोकन्याय वश कोतवाल ने आतताई को गिरफ्तार किया व आचार्य श्री से पूछा इसे क्या दंड दिया जाय॥ आचार्य श्री ने कहा यदि मेरी मानो तो इसे क्षमा कर दो॥ जिस कर्म का प्रेरा है यह, उसी कर्म के भरोसे इसे छोड़ दो। इन परिषहों व इन परिषहों के काल में आचार्य श्री की निर्भय, निराकुल व लोककल्याणकारी मुद्रा ने उनके मुख बंद कर दिये, जो उनके मंत्रविद् होने की शंकायें करते थे। उपर्युक्त उदाहरणों ने इन आलोचकों को भी आचार्य श्री को लोकोत्तर महापुरुष मानने को विवश कर दिया।। मात्र इन आलोचकों व जैनियों को ही नहीं, अपितु जैनेतरों को भी चिंतन करने को विवश कर दिया कि यह व्याक्ति हम जैसा दिख अवश्य रहा है, किन्तु है नहीं, यह हमसे सर्वथा भिन्न, निराला व दैविक विभूतियों का पिण्ड ही है। इसको शरण हमारा भी कल्याण कर सकती है। २) तप से प्रभावित : जैसा कि हमने ऊपर कहा ही है कि इस संसार में ऐसे कई हैं, जिन्हें जीवन में कभी-कभार दिखने वाले परिषह जय प्रभावित नहीं करते, इन्हें तो संतों में पाया जाने वाला आचार व संकल्प पूर्वक तपे गये तप प्रभावित करते हैं। इस मानस के महानुभावों को भी प्रभावित व श्रद्धावान बनाने के लिये आचार्य श्री के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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