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________________ उनसत्तर चारित्र चक्रवर्ती- एक अध्ययन जीवन सामग्रियों की कमी नहीं, अपितु बहुलता ही है। बाल्यकाल से ही आचार्य श्री का जीवन कठोर स्वानुशासन में व्यतीत हुआ था। बाल ब्रह्मचारियों का सा जीवन और उस पर अनेकों प्रकार का त्याग।। जीवन में कभी किसी के साथ न तो कठोर व्यवहार किया और न ही कठोर वचनों का प्रयोग किया। क्षमा और दया दोनों का सम्मिश्रण रहा जीवन ॥ लौकिक कार्यों में कभी रूचि नहीं ली, किन्तु कौशल्य नैसर्गिक रहा। व्यापार में भी न तो चित्त लगा और न ही लगाने का प्रयास किया। स्वाभाविक निसर्ग प्रदत्त भव प्रत्ययिक वैराग्य था उनका॥ वैराग्य भी इतना गहरा कि कभी कथा कहानियाँ पढ़े आख्यान का उनके जीवन में साक्षात्कार ही हो गया। पिता ने कहा कि यदि मुनि ही बनना है तो मेरी मृत्यु के बाद बनना, उसके पूर्व नहीं। सहज स्वीकार कर लिया कि ठीक है।। मन में किंचित् भी भय नहीं कि आज वैराग्य है, कल रहे, न रहे, कल आयु बचे, न बचे, जो उत्तम है, उसे कल पर न टालो, अभी कर लो॥ किन्तु नहीं, स्व के प्रति आश्वस्त॥ काल की ओर से निःश्चित॥ कितनों के भीतर पलती है यह आश्वस्तता/यह निश्चितता ? निश्चित ही बिरलों के भीतर ही॥ जिनको स्त्री का स्पर्श तो दूर, स्त्री की कल्पना भी स्खलित हो जाने को महान कारण भासती है, उनके लिये तो इस बाल ब्रह्मचारी का जीवन परीकथाओं के सदृश्य है। यह बाल ब्रह्मचारी अर्द्ध यात्रा में थक गई एक वृद्धा को अपने कांधे पर लाद शिखर जी की वंदना करवाता है।। मात्र वृद्धा को ही नहीं, अपितु एक क्लांत पुरुष को राजगिरि की॥ मानो पीठ पर स्त्री हो या पुरुष इससे इसे कोई अंतर ही नहीं पड़ता। दोनों के प्रति एक ही भाव/एक से भाव॥ दोनों ही जीव और दोनों को ही आवश्यकता इस समय एक उपकारी की॥ ऐसा सहज, स्वाभाविक, निसर्गज ब्रह्मचर्य निश्चित ही संसार में दुर्लभ है। उनका गृहस्थ जीवन भी कठोर स्वानुशासन का उत्तम व दुर्लभ उदाहरण रहा। संयमी होने के पश्चात तो यह स्वानुशासन और अधिक कठोर होकर सम्मुख आया। अपने गृहस्थ जीवन में आचार्य श्री मुनि धर्म के ज्ञाता तो थे, किन्तु अपने काल में मुनिगणों में पायी जाने वाली शिथिलता के आलोचक नहीं थे। अपने गृहस्थ जीवन में उन्होंने शिथिल मुनि की कभी आलोचना नहीं की। मुनिगण आये, श्रद्धा पूर्वक उन्हें नमन किया, उनकी आहार चर्या पूर्ण करवाई, उनकी वैय्यावृत्ति की व विदा किया। उपगूहन अंग का पूरा-पूरा पालन किया और स्थितिकरण किया स्वयं दीक्षा लेने के पश्चात् और वह भी व्याख्यानों में व चर्चाओं में निंदा करके नहीं/मुनिगणों को अकेले में समझा करके नहीं, अपितु अपनी चर्या के माध्यम से लोकमानस की निर्मिति करके की॥ इस लोकमानस की निर्मिति ने आहार चर्या के दूषणों को दूर कर दिया, आहार चर्या का दूषण दूर होते ही शिथिलाचार स्वयं दूर हो गया, एक -एक का पृथक स्थितिकरण करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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