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________________ चारित्र चक्रवर्ती- एक अध्ययन सड़सठ सर्प की लीला देख रहे थे, वैसे ही यह भी उस लीला का दृष्टा मात्र रहता, दृष्टा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। इसे ही सत्य के दस भेदों में से संभावना सत्य कहते हैं। ____ इस संपूर्ण घटना क्रम में भी पुनः आश्चर्य यह था कि आचार्य श्री को इसके पूर्व सर्प संसर्ग के दो अनुभव तो थे, किन्तु अभ्यास नहीं॥अभ्यास नहीं होने पर भी आचार्य श्री ने इस घटना को ऐसे हो जाने दिया मानो कोई सामान्य सी घटना हो। इस घटना ने आमोखास में एक बात तय कर दी कि यह महामना आम नहीं खास है, खास भी नहीं, खासों में भी खास है॥ इस घटना के पश्चात तो इस प्रकार की घटनाओं का एक क्रम ही प्रारंभ हो गया, जिसमें वे जो कि इस घटना से प्रभावित नहीं थे व इस घटना को मात्र एक संयोग भर नाम दे रहे थे, वे भी आचार्य श्री के अद्भूत व्यक्तित्व को लेकर सोचने को बाध्य हो गये। ___ आदरणीय रावजी सखाराम दोशी, जो कि न सिर्फ एक सुप्रसिद्ध उद्योगपति थे, अपितु महान तत्ववेत्ता भी थे व उस समय के सुप्रसिद्ध मासिक जैन बोधक (मराठी)के संपादक भी थे, आचार्यश्री के संबंध में लिखते हैं (आचार्य श्री शांतिसागर का चरित्र, संस्करण १६३४, आद्य वक्तव्य, पृष्ठ १): "निमित्त शास्त्र के जानने वालों को ऐसा अभिमत है कि जिस व्यक्ति के शरीर पर चढ़ कर सर्प लीला करे और उस व्यक्ति को बाल-बाल छोड़ दे, तो वह व्यक्ति संसार में महापुरुष होगा, महापराक्रमी होगा, अलौकिक कार्य कर संसार का उद्धार करेगा। महर्षि शांतिसागर के शरीर पर भी (दीक्षा के बाद सन् १९३४ तक) ५ बार सर्प चढ़ने का उल्लेख व देखने का मौका मिला है। कभी-कभी तो दो-दो घण्टे तक सर्प शरीर में अपनी लीला करता रहा, परंतु न तो तपोनिधि शांतिसागर विचलित हुए और न वह सर्प ही कुछ विक्षुब्ध हुआ॥वस्तुतः यह बात आचार्य शांतिसागर के अलौकिक महापुरुषत्व को प्रगट करती है।" यहाँ कोई शंका कर सकता है कि संभव है आचार्यश्री ने गृहस्थावस्था में सर्पवशीकरण मंत्र सिद्ध कर लिया हो, जिस कारण उन्हें ज्ञात ही हो कि सर्प उनका कुछ बिगाड़ नहीं कर पायेगा, मात्र लीला कर लौट जायेगा। आचार्य श्री मंत्र विद् भी थे, इस विषय में शंका को स्थान ही नहीं, क्योंकि उनके क्षुल्लक अवस्था की प्रसिद्ध कथा है जिसमें उन्होंने एक सर्प विष निवारक को सर्प का विष उतारने हेतु प्रयुक्त किये जाने वाले जैन मंत्र व उसे सिद्ध करने की विधि बतलाई थी॥' यह कथा बतलाती है कि आचार्य श्री मांत्रिक भी थे। चूँकि उन्हें सर्प वशीकरण मंत्र सिद्ध था, इसलिये सर्प आया, लीला की और लौट गया, विक्षुब्ध न हो पाया॥ चूंकि यह सब आचार्य श्री की ही लीला थी, इसलिए उन्हें कोई भय भी नहीं हुआ। ऐसा चिंतन करने वालों के प्रत्युत्तर में आचार्य श्री के जीवन में घटनाक्रमों की कमी १. चारित्र चक्रवर्ती, संस्करण १९६७, शीर्षक: संयम-पथ, उपशीर्षक: जैन मंत्र का अपूर्वप्रभाव, पृष्ठ :६८. Jain Education International For Private For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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