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________________ छांछठ चारित्र चक्रवर्ती सद्भाव से, प्रभावित होने वाले मानस/चित्त भी ६ प्रकार के हो जाते हैं : १) परिषहजय से प्रभावित, २) तपसे प्रभावित, ३) प्रज्ञा से प्रभावित, ४) जनोत्कर्ष/ निर्बलोत्कर्ष प्रभावित, ५) दूरदर्शिता से प्रभावित, ६) सल्लेखनाकी साधना से प्रभावित. आइये, आचार्य श्री से प्रभावित इन ६ प्रकार के चित्तों पर प्रभाव छोड़ने वाली ६ प्रकार की चारित्राध्यिकता का आचार्य श्री में अन्वेषण करें : १) परिषह जय से प्रभावित : संसार में संतों द्वारा किया गया परिषह जय, सभी को आकर्षित कर ही लेता है, ऐसा नहीं है। कुछ लोग हैं, जिन्हें परिषह जय आकर्षित नहीं करता। आकर्षित ही नहीं करता, ऐसा नहीं, आकर्षित तो करता है, किंतु श्रद्धा उत्पन्न नहीं कराता।। श्रद्धा इसलिए उत्पन्न नहीं कराता, क्योंकि यह परिषह जय अन्य मतियों में भी पाया जाता है। किन्तु इस संसार में कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें परिषह जय श्रद्धानी बना देता है। इन्हीं श्रद्धनियों के लिए आचार्यश्री का जीवन महान आदर्श रूप है। कोन्नूर चातुर्मास के समय हुए सर्प के उपसर्ग ने जहाँ संपूर्ण दिगम्बर जैन समाज को चौंकाया, वहीं एक बहुत बड़े वर्ग को आचार्यश्री के चरणों की ओर दौड़ाया भी। __इस घटना के कई प्रत्यक्षदर्शी भी थे। उन प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा जैसे-जैसे समाचार दूरदराजों में फैलते गये, वैसे-वैसे आँखों में आश्चर्य व अचंभे के भाव लिये कई सौ श्रद्धानो आचार्य श्री के चरणों की ओर इस चिंतन के वशीभूत हो दौड़ पड़े कि क्या कलिकाल में भो ऐसी विभूति संभव है ? कई लोगों ने तो शंकास्पद हो आचार्य श्री को छू कर भी देखा कि यह हमारी ही तरह हाड़-मांस का ही पिण्ड है या किसी और मिट्टी का बना॥ ___ इस घटना ने कई चित्रकारों को प्रभावित किया। इन चित्रकारों ने इस घटना को चिरस्मृत बना दिया। तीन प्रकार के चित्र आचार्य श्री के इस अलौकिक स्वरूप का बखान करते दिगदिगन्तों में पहुँच गये॥ हुआ यहाँ तक कि चित्र दक्षिण में बने व छपे जबलपुर व कलकत्ता में ॥ इस घटना का बखान करती तस्वीरें तो कई बनीं, किन्तु उन तस्वीरों में भी प्रसिद्ध सिर्फ तीन हुई : १) इस तस्वीर में सर्प ने कुंडली मारकर आचार्य श्री की गर्दन को घेर लिया है व सर पर फन फैलाये नृत्य कर रहा है। २) इस तस्वीर में दृश्य तो उपर्युक्त ही है, अंतर सिर्फ इतना है कि फन फैलाया हुआ सर्प नृत्य नहीं कर रहा है, अपितु स्थिर है। ३) इस तस्वीर में सर्प छाती तक चढ़ आया है। इन प्रसिद्ध हुई तस्वीरों में खोज का विषय यह नहीं है कि सर्प कहाँ तक चढ़ा, अपितु यह है कि सर्प यदि आचार्य श्री की गर्दन को घेर मस्तक पर फन फैला कर नृत्य भी कर रहा होता, तब भी यह महामना महामानव ऐसे ही निश्चल/निर्भय भाव से बैठा रहता व जैसे हम चित्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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