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________________ श्रमणों के संस्मरण ५४५ कहा करते थे। पार्श्वनाथ उपाध्ये वयोवृद्ध श्री उपाध्ये ने शांतिसागर महाराज के सत्संग का लाभ लिया था। भोज ग्राम भी चिक्कोड़ी तालुका में ही तो है। श्री उपाध्ये का यह वर्णन महत्वपूर्ण तथा मनोरंजक है-“आचार्य महाराज जब गृहस्थ थे अर्थात् उन्होंने जब गृह नहीं छोड़ा था, तब वे हमारे ग्राम पट्टन में आए थे। मैं उनको एक घंटे पर्यन्त पद्मनंदिपंचविंशतिका सुनाता था। उस समय महाराज को ब्रह्मचारी सातगोंडा कहते थे। उनका उस समय यह नियम था कि शास्त्र स्वाध्याय के बिना वे अन्न-जल नहीं लेते थे। शास्त्र सुनने के उपरान्त ही वे भोजन करते थे। उनका शास्त्र का प्रेम प्रारंभ से ही महान् रहा है। हमारा-उनका हार्दिक प्रेम था। वे शास्त्र सुनकर मुझसे कहते थे - ‘उपाध्याय ! मेरा मन शीघ्र ही स्वामी बनने का है।' दक्षिणमें मुनिपद लेने वाले को स्वामी कहने की पद्धति है। इस व्यवहार के पीछे सद्वीचार छुपा है। चक्रवर्ती भी साक्षात् क्यों न हो, वह स्वामी नहीं है। वह बेचारा भोगों तथा इंद्रिय-सुखों का दास है। दासानुदास के समान है। दिगम्बर मुद्रा स्वीकार करने वाला मनस्वी मानव इंद्रियों का दास नहीं रहता है, वह इंद्रियों को दास बनाता है।, अतएव मुनि को स्वामी कहना अर्थपूर्ण है।" उपाध्याय ने महाराज के स्वामी बनने की भावना ज्ञात करके कहा-“पाटिल! स्वामी बनना बहुत कठिन काम है। उसके लिए आत्मा में बहुत शक्ति तथा सच्चा वैराग्य चाहिए।" वे कहते थे-“मैंने अपने मन में पक्का निश्चय कर लिया है। मैं उससे पीछे नहीं हटूंगा।" उनकी वाणी के पीछे सुदृढ़ संकल्प की प्रेरणा का दर्शन होता था। उनकी उच्च मनोभावना ज्ञातकर मैं उनके समक्ष यतिधर्म की विशेष रूप से व्याख्या करता था। उस अवस्था में वे मुझे ज्ञान, वैराग्य तथा ब्रह्मचर्य की जीवितमूर्ति दिखते थे। वर्धमान स्वामी महान् थे "जैसा निकट परिचय आचार्य महाराज के साथ था, वैसा ही परिचय तथा निकटता देवगोंडा पाटील (वर्धमानसागर महाराज) के साथ थी। दोनों पाटील बंधु सत्पुरुष,महान् व संत आत्मा थे।" उनका पवित्र सुझाव महाराज मुझसे कहते थे-"उपाध्याय ! तुम मुनिधर्म की इतनी मधुर तथा मार्मिक चर्चा करते हो , उसके गुण का कथन करते हो, तुम भी मुनि बमो, तो ठीक रहेगा।"मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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