________________
५४६
चारित्र चक्रवर्ती
कहता था - " मेरे चारित्र - मोह का प्रबल उदय है, इससे मैं महाव्रती बनने की पात्रता अभी अपने में नहीं पाता हूँ। जब कर्मभार हलका होगा, तब उस निर्वाण मुद्रा को धारणकर अपने जन्म को कृतार्थ करूँगा।" उनके दर्शनमात्र से हृदय को अपार आनंद प्राप्त होता था।
सेठ रामचंद धनजी दावड़ा नातेपुते
कन्नूर गुफा : सेठ रामचंद धनजी दावड़ा नातेपुते ने कहा- "मैं पहली बार महाराज शांतिसागरजी के पास कोन्नूर में गया था। वहाँ पाँच सौ से भी अधिक गुफाएं है । महाराज़ नगर के बाहर की गुफा में रहते थे। दोपहर की सामायिक गुफा में ही करते थे । गुफा पाँच फुट से भी बड़ी थी। ऊँची भी अधिक थी। एक चिट्ठे वाला सर्प, जो लगभग २ हाथ का रहा होगा, गुफा में आया । वह महाराज की जंघा पर चढ़ा और बाद में गुफा के बाहर आ गया। वह महाराज के शरीर पर पाँच मिनिट पर्यन्त रहा था । उस समय महाराज ध्यान में स्थिर थे। वे जरा भी हिले-डुले नहीं। उनकी दृढ़ता देखकर मेरे मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। मैं इतना प्रभावित हो गया कि करीब तीस वर्ष पर्यन्त भादों मास में लगातार उनके पास नियम से जाया करता था। मैं उनके बहुत परिचय में रहा। वे अपने ढंग के अद्वितीय महापुरुष हो गए। "
समाधि की बात : “समाधि की बात तो तब आती, जब उसके सम्बन्ध में कभी किसी प्रकार की चर्चा चली होती । अद्भुत आत्मबली, परमपावन गुरुदेव प्रायः हृदय की बात मुझे बताते थे। उन्होंने कहा था- 'हम सल्लेखना तो लेंगे, किन्तु वह यमसल्लेखना न होगी, हम नियम सल्लेखना लेंगे।' उनके मनोगत को उपरोक्त रूप से जानने कारण, मैं तो कभी नहीं सोचता था कि महाराज और यमराज का द्वन्द्व यम-२ - सल्लेखना के माध्यम से आरम्भ होगा ?"
यथार्थ बात : " गहराई से पता चलाने पर यह अवगत हुआ कि वे साधुराज सल्लेखना की तपोग्नि में अभी प्रवेश करने की नहीं सोचते थे, किन्तु लोगों ने ऐसी विचित्र परिस्थिति लाकर एकत्रित कर दी कि महाराज की अत्यन्त विरक्त और प्रबुद्ध आत्त्मा ने यमसल्लेखना
स्वीकार किया। अब विशेष ऊहापोह में क्या सार है ? ' अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत ।' गुरुदेव तो गए। उनके जीवन की बातों को पुनः पुनः स्मरण कर तथा तदनुसार प्रवृत्ति कर हम अपना जन्म कृतार्थ कर सकते हैं। वे तो वास्तव में धन्य हो गए। हमारे समक्ष उनके पदचिन्ह हैं।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org