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चारित्र चक्रवर्ती को मारने का काम लिया जाता है। पागल ने महाराजजी के पास रोटी माँगी।
वह कहता था-“ए बाबा ! रोटी दो, बड़ी भूख लगी है।" बाबा के पास क्या था ? कुछ होता तो देते। वे तो चुपचाप आत्म-ध्यान करने बैठे थे। उनको शान्त देख पागल.का दिमाग और उत्तेजित हुआ। उसने अपने पास की लकड़ी से महाराज के शरीर को मारना शुरू किया। लोहे की नोक, शरीर में, पीठ में, छाती आदि में चुभी। सारा शरीर रक्तरञ्जित हो गया। लकड़ी की मार से हाथ-पैर सूज गये थे। उस कठिन परिस्थिति का क्या वर्णन करें। बहुत देर तक उपद्रव करने के बाद पागल वहाँ से चला गया। बस्ती में आकर उसने अपने कुटुम्बी की हत्या की, जिसके कारण उसे प्राणदण्ड मिला था।"
श्री पाटील ने बताया कि- “सबेरे हमने जब महाराज को देखा, तो उनके शरीर पर अनेक जगह लकड़ी के निशान थे। कई जगह खून बह रहा था। मैं यह देखकर आश्चर्य में पड़ गया। समझ में नहीं आया क्या हुआ ? सारे समाज को खबर लगी। सब लोग बहुत दुःखी हुए। महाराज ने कुछ नहीं कहा। वे चुपचाप रहे और पास के ग्राम जैनवाड़ी को चले गये। वहाँ जाकर हम लोगों ने उनसे बहुत प्रार्थना की। अत्यधिक अनुनयविनय के उपरान्त वे पुनः कोगनोली आये। आज भी पागल के द्वारा किये गये उपसर्ग का स्मरण कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कैसी उनकी स्थिरता थी, कितना उनमें धैर्य था, कितनी उनमें शान्ति थी ? हमारा छोटा-सा हृदय और साधारण-सा मस्तक उन गुरूदेव की गहराई और महत्ता का अनुमान भी नहीं कर सकता। धन्य हैं, वे जो उस भयंकर शारीरिक उपद्रव को साम्यभाव से सहन करते रहे।"
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भाईचन्द नेमचन्द गांधी, नातेपुत पात्रापात्र का विवेक
आचार्य महाराज बहुत सोच-विचार कर कार्य करते थे। एक दिन भाईचन्द नेमचन्द गांधी नातेपुते ने आचार्यश्री से ब्रह्मचर्य प्रतिमारूप व्रत माँगे।
महाराज ने उनकी पात्रता का विचार करके कहा-“तुम पापभीरु हो, इस कारण तुमको ब्रह्मचर्य व्रत देते हैं। तुम्हारे हृदय में वैराग्य नहीं है, इससे प्रतिमारूप व्रत नहीं देते हैं।" विनोद
महाराज का विनोद मधुर तथा अकटु होता था। भाईचन्द ने सुनाया कि मेरी विलक्षण तथा विचित्र बातों को सुनकर महाराज मुझे दोन शहाणा" (दो दिमाग वाला बुद्धिमान)
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