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श्रमणों के संस्मरण
५३७ आहार देने की तीव्र इच्छा थी, किन्तु बहुत अधिक दरिद्र होने से उसका साहस आहार देने का नहीं होता था। एक दिन वह गरीब प्रतिग्रह के लिए खड़ा हो गया। उसके यहाँ आचार्यश्री की विधि का योग मिल गया। उसके घर में चार ज्वार की रोटी थी। उन्होंने सोचा कि यदि इसकी चारों रोटी हम ग्रहण कर लेते हैं, तो यह गरीब क्या खायगा? इससे उन्होंने थोड़ी-सी भाकरी, थोड़ा दाल, चावल मात्र लिया था। उस समय गरीब श्रावक का हृदय बडा प्रसन्न हो रहा था। उसके भक्ति से परिपूर्ण आहार को लेकर वे आए और सामायिक को बैठे। उस दिन सामायिक में बहुत मन लगा। बहुत देर तक सामायिक होती रही। शुद्ध तथा पवित्र मन से दिए गए आहार का परिणामों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। वे लोकोत्तर थे।"
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शिथिलाचार में सुधार वर्धमान स्वामी ने बताया-“आचार्य महाराज को क्षुल्लक पद प्रदान करने वाले मुनि देवप्पा स्वामी के समय में मुनि पद में बहुत शिथिलता थी। उस समय देवप्पा स्वामी आहार को जाते थे, पश्चात् दातार से सवा रुपये लेते थे। आचार्य महाराज ने क्षुल्लक पद में भी ऐसा नहीं किया। इस पर देवप्पा स्वामी कहते थे कि तुम रुपया लेकर हमें दे दिया करो। आगमप्राण आचार्य महाराज को यह बात अनिष्ट लगी, अतः महाराज ने देवप्पा स्वामी का साथ छोड़ दिया था।"
-पृष्ठ-४८० मुनिराज श्री वर्धमान सागरजी उवाच
हित शत्रु उनके एक भक्त-विद्धान्-त्यागी के समक्ष मैंने महाराज से कहा-“आपके सिर में ब्राह्मी तैल सदृश कोई औषधि अवश्य लगानी चाहिये।"वे बोले- "हमें अपने शरीर की अवस्था मालूम है। ये औषधि बताने वाले, हमारे हितैषी बनकर आते हैं और बाद में बातें सुनाते हैं। मैं तो इनको अपना हित-शत्रु समझता हूँ।" हितैषी के लिये हितशत्रु शब्द का प्रयोग सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, इसलिए मैंने पूछा-“आपने यह कैसे कहा?"
उत्तर-“ये बताते हैं हित और करते हैं हमारे हित का घात। प्रमाद को बढ़ाने वाले कार्यों की ओर मुझे ले जाना चाहते हैं। उनसे मेरा घात होता है। इसलिए मैंने सोच-समझकर इन्हें हित-शत्रु कहा है।"
-पृष्ठ-४८८-४८आचार्य श्रीवीरसागरजी उवाच
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