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________________ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री विमलसागरजीमहाराज डाकू का कल्याण १६ जनवरी, १६५६ को १०८ मुनि विमलसागर महाराज शिखरजी जाते हुए फलटण चातुर्मास के उपरान्त सिवनी पधारे थे। उन्होंने बताया था कि आचार्य शांतिसागर महाराज आगरा के समीप पहुंचे। वहाँ जैन मंदिर में उनके पास एक महान् डाकू रामसिंह पद्मावती पुरवाल वेष बदलकर गया। महाराज के पवित्र जीवन ने उस डाकू के हृदय में परिवर्तन कर दिया। उसने महाराज से अपनी कथा कहकर क्षमा-याचना की तथा उपदेश माँगा! महाराज ने उससे कहा- “तुम णमोकार मंत्र को जपो।"णमोकार मंत्र जपते ही उस डाकू के तत्काल प्राणपखेरु उड़ गए। जीवन कितना क्षणिक है। क्षण भर में उसका कल्याण हो गया। आचार्य विमलसागरजी ने कहा था-"स्व. आचार्य महाराज आगरा की तरफ पधारे थे। उनकी कृपा से हमें यज्ञोपवीत प्राप्त हआ था, जो रत्नत्रय का लिङ्ग है। उस रत्नत्रय के चिह्न के निमित्त से आज मुझे निर्ग्रन्थ पदवी प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। उनके सम्पर्क से परिणामों में अपूर्व उत्साह उत्पन्न होता था। आत्मकल्याण की ओर भाव बढ़ते थे।" ******** ब्र. भरमप्पा की क्षुल्लक दीक्षा क्षुल्लक सिद्धिसागरजी ने आचार्य महाराज की बहुत सेवा तथा वैयावृत्य की थी। उन्होंने बताया कि- “मैंने महाराज से क्षुल्लक दीक्षा मांगी। महाराज ने कहा, 'वर्धमानसागर से दीक्षा ले लो।' इसके बाद उन्होंने ब्र. बंडू रत्तू को दीक्षा के लिए कहा और कहा कि हम तुम्हें दीक्षा दे देंगे।' उस समय मैंने कहा-'महाराज ! मुझे भी आप दीक्षा दीजिये।' ब्र. रत्तू बंडू ने दीक्षा नहीं ली। मेरा भाग्य था, इससे महाराज से मुझे २८ अगस्त १६५५ को क्षुल्लक दीक्षा मिल गई। दीक्षा देते समय महाराज ने मुझसे कहा था कि तुम को कुछ नहीं आता, इसलिये हमेशा णमोकार मंत्र का जाप मंदिर में करते रहना। आहार को जाने के पूर्व शौच से आने पर तथा अन्य समय पर २७ बार णमोकार का जाप करना।" Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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