SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 655
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमणों के संस्मरण ५३३ लगती है, उतनी ठंड हमें दिगम्बरत्व में लगती है।" मैंने पूछा-"महाराज! यह कैसी बात है ?" उत्तर-“अन्तरङ्ग में "धृति-कम्बलः"धैर्यरूपी कम्बल ओढ़कर हम रहते हैं। उस कम्बल के धारण करने पर आनन्द से शीत ऋतु व्यतीत हो जाती है।" उन्होंने समझाया"आप लोग व्यापार करते हैं। भयंकर गर्मी में बैठकर व्यापार में निमग्न रहते हैं, तब क्या गर्मी लगती है ? उस समय धनोपार्जन के आनन्द के कारण जिस प्रकार गर्मी का कष्ट कष्टरूप नहीं लगता, इसी प्रकार परीषहादि भी संयमी पुरुषों को बाधक नहीं होते।" अद्भुत योगी उन्होंने उस समय शान्तिसागर महाराज के सत्सङ्ग का उल्लेख करते हुए बताया था“आचार्य महाराज अद्भुत योगी की तरह ध्यान में निमग्न रहते थे, जब चाहे तब वे अपनी आँखों को बन्द कर देते थे और अपने-आप में मस्त रहा करते थे।"वास्तव में जैसे फिल्म (चित्रपट) देखते समय बाहरी प्रकाश बुझा देना उपयोगी रहता है, ठीक इसी प्रकार अंतर्ज्योति के दर्शन के लिए चक्षुरूपी बाहरी खिड़कियों को बन्द करना आवश्यक है। इतना ही क्यों आत्मा के असली आनन्द, अवर्णनीय रस का निर्झर तो तब बहता है और उसमें आकण्ठ निमग्न होने का अपूर्व सुखद अनुभव तब प्राप्त होता है, जब आत्मा व्यग्रता के कारणरूप स्पर्शन,रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन इन्द्रियों से सम्पर्क दूर कर उपद्रवी मन को कसकर बाँध लेता है। जो खाते-पीते, मौज उड़ाते, खेलते, कूदते, विषय सेवन करते हैं, मान-अपमान की गठरी पास रखते हैं, रागद्वेष का कचरा साथ में रखते हुए आत्मानन्द की उज्ज्वल बातें बनाते है, उनकी बातें ऐसी लगती हैं, जैसी किसी दरिद्र के मुख से श्रीमन्तों को तिरस्कृत करनेवाली धनवैभव की चर्चा निकलती है। इस प्रकाश में उन विषयासक्तों का जीवन करुणापूर्ण लगता है, जो अंधकार पुंज अपने जीवन को सर्वाधिक तेजःपुंज मानते हैं। वे मोही, साधुओं की दया के पात्र हैं। मोहकर्म के कारण वे तेजोमय सत्य का दर्शन नहीं कर पाते हैं। पतित का उद्धारकार्य “आचार्य अनंतकीर्ति महाराज ने एक घटना का जिक्र किया कि एक बार आचार्य शांतिसागर महाराज कुंभोज पहुँचे। एक व्यक्ति धर्ममार्ग से डिग चुका था। उसके सुधार हेतु महाराज के भाव उत्पन्न हुए। महाराज ने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाने का विचार किया। उस पर चंद्रसागरजी ने कहा-“महाराज! वह दुष्ट है। बुलाने पर वह नहीं आयेगा, तो आपका अपमान होगा।" आचार्य महाराज ने कहा-“हमारे पास मान नहीं है, तो अपमान कैसे होगा?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy