SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 654
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३२ चारित्र चक्रवर्ती सद्गुरु नाविक हैं जिस तरह महान् सरोवर या सिन्धु में चतुर नाविक का आश्रय प्राणों का रक्षण करता है, उसी प्रकार भवसिंधु में सद्गुरु का अवलम्बन ग्रहण करना हितकारी होता है। गुरु का अनमोल अनुभव सत्पथ पर लगाता है। अहंकार का त्याग जब आत्मा का कल्याण करना है, सारे कुटुम्ब परिवार को छोड़ना है, तब स्वात्मसिद्धि के प्रेमी साधु को छोटे से अहंकाररूपी शत्रु को भी छोड़ देना चाहिए। यह थोड़ा-सा अहंकार महान् साधु को लधु बनाते हुए उनकी साधुता को कभी-कभी मोह की भंवर में डुबा दिया करता है। इस प्रकाश में अनन्तकीर्ति महाराज की बात सुन्दर लगती है कि उन्हें गुरु नहीं मिला था, किन्तु तत्पश्चात् सद्गुरु मिल गये, तो उनसे दुबारा दीक्षा ली। यह कार्य उज्ज्वल है, प्रशस्त है। अभिनन्दनीय एवं अभिवन्दनीय है। अन्य मुमुक्षु वर्ग को इस सम्बन्ध में अवश्य दृष्टि देने की प्रार्थना है। कुटुम्बी बाधक नहीं बने __ अनन्तकीर्ति महाराज से मैंने पूछा-“महाराज, आप तो बड़े सम्पन्न परिवार के व्यक्ति रहे, दीक्षा लेते समय क्या कुटुम्बी लोग बाधक नहीं बने ?” __उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा- “हमारे मन से प्रेम हटने के बाद कुटुम्बियों में रोकने की भला क्या ताकत थी?"सचमुच में जो विषयों की दासता त्यागकर, अन्तःकरण में यथार्थ वैराग्य की ज्योति को जलाता है, उस भाग्यशाली को, आत्मस्वातन्त्र्य के पथ में प्रवृत्ति करने से कौन रोक सकता है ? उदीयमान प्रभातकालीन प्रभाकर को क्षितिज पर देखकर ऐसा कौन है, जो उसकी वृद्धि को रोककर, उसे पुनः उषा की गोद में सुला सके ? हाँ, असली वैराग्य चाहिए। श्मशान-वैराग्य अल्प काल तक टिकता है। जैसे सट्टे का व्यापारी क्षण में धनवान बन जाता है। श्रीमन्तों में महाश्रीमन्त बनता है और थोड़े समय के बाद ही दरिद्रों की पंक्ति में पुनः बैठ जाता है, अतः विवेकी जन, मन के मजबूत होने पर ही अपना कदम उठाया करते हैं। क्या मुनिपद कठिन है ? __ मैंने पूछा-"आपने मुनिपद जैसी कठिन चीज को बहुत जल्दी कैसे ग्रहण कर लिया?" अनन्तकीर्ति महाराज ने कहा-“मुनि का जीवन कठिन नहीं है। वास्तव में आत्मकल्याण का पथ सुलभ है। अज्ञान के कारण जीव उसे कठिन मानता है और जो वास्तव में कठिन है, उसे सुलभ समझता है। घर के कामों की अपेक्षा मुनि का जीवन सुलभ होता है।" वे कहने लगे-“पण्डितजी ! कपड़े ओढ़कर आपको जितनी ठंड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy