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________________ ५३४ चारित्र चक्रवर्ती मान होने पर अपमान का भय उचित था। इसके पश्चात् वह व्यक्ति महाराज के पास आया। उनके तपोमय व्यक्तित्व ने उस पापी हृदय पर गहरा प्रभाव डाला। महाराज के कथन को सुनकर उसने अपने जीवन में समुचित सुधार कर लिया।" ___ आचार्य पायसागर महाराज ने अनंतकीर्ति महाराज को आचार्य-पद प्रदान कर समाधि ली थी। अनंतकीर्ति महाराज की शान्ति के साथ समाधि हो गई। ******** मुनिपद का महत्व ८ सितम्बर को आहार के उपरान्त महाराज ने कन्नड़ी में मुझ से कुछ कहा। मैंने पूछा- “महाराज आपने क्या कहा ?" उन्होंने कहा- “बैठ जाओ, यह कहा है।" बैठने के पश्चात् उन्होंने हमसे पूछा-“बताओ, हमने घर छोड़कर मुनि का पद क्यों धारण किया? क्या भोजन के लिए ? लज्जा छोड़कर दूसरे के घर में खड़े भिक्षावृत्ति से आहार के लिए क्या मुनिपद लिया ? क्या हमारे घर में कमी थी, जो ऐसा किया ?" ___ मैंने कहा-“महाराज ! आपका संपन्न परिवार बहुतों को भोजन देता रहा है। उपरोक्त कोई कारण नहीं है, अतः महाराज! आप ही इस प्रश्न का समाधान कर सकते हैं।" उन्होंने कहा-"हमने आत्मकल्याण के लिए यह पद ग्रहण किया है। आगमानुसार प्रवृत्ति के लिए यह मुद्रा धारण की है। आचार्यों ने कहा है कि २८ मूलगुणों का पालन करते हुए आत्मकल्याण करो, इससे मैं ऐसा करता हूँ । यश, मान, सम्मान के लिए यह पद अंगीकार नहीं किया है। यश तथा सम्मान में क्या है ? आहार के पश्चात् तुमने पूजा-स्तुति की या नहीं की, इसमें क्या है ? आगम कहता है कि मुट्ठी भर अन्न खा और जा। इससे आत्मकल्याण की साधना के एकमात्र उद्देश्य से हमने दिगम्बर मुद्रा धारण की है। ‘या शिवाय मोक्ष होणार नाही - इस पद के बिना मोक्ष नहीं होगा।" -पृष्ठ-४६२-४६३, मुनिराज श्री वर्धमानसागरजी उवाच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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