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________________ ५१६ चारित्र चक्रवर्ती भट्टारक जिनसेन जी के सत्य स्वप्न मैंने कहा-“भट्टारक जिनसेन स्वामी कोल्हापुर को ७ जुलाई, १९५३ को सबेरे पाँच बजे ऐसा स्वप्न आया था कि आचार्य महाराज आगामी तीसरे भव में तीर्थङ्कर होंगे।" इस सम्बन्ध में धर्मसागर महाराज ने कहा-“भट्टारक जिनसेन के स्वप्नसच्चे देखे गए हैं। स्व. आचार्य श्री ने भी उक्त भट्टारकजी के स्वप्नों की प्रामाणिकता प्रतिपादित की थी।" अभक्ष्य सेवन आजकल प्रायः शुद्ध आचार तथा विचार में सर्वत्र शिथिलता नजर आती है । एक जैन प्रोफेसर ने कहा था-“लोकोपकारी व्यक्ति यदि अमेरिका के उत्तर भाग में चला जाय, जहाँ का प्रदेश हिमाच्छादित है तथा हिमाच्छादित होने से जहाँ वनस्पति नहीं मिल सकती है, वहाँ उस मनुष्य को मांस खाकर अपना निर्वाह करने में जैन सिद्धान्त में बाधा नहीं आती।" - मैंने यह चर्चा धर्मसागर महाराज के समक्ष चलाई, तो उन्होंने सूत्र रूप में यह मार्मिक उत्तर दिया था-"अभक्ष्य खाकर जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है।" हमारे पिताश्री को संदेश - धर्मसागर महाराज से पिताजी के स्वास्थ्य की चर्चा आई। वे उनकी अत्यन्त वृद्ध देहस्थिति को दो वर्ष पूर्व सिवनी में हमारे यहाँ पधारकर स्वयं देख चुके थे, अतएव उन्होंने पिताश्री सिंघई कुँवरसेनजी के लिए यह महत्वपूर्ण तथा कल्याणकारी संदेश दिया था, "उनको कहना कि प्राण जाते पर्यन्त अरहंत नाम निरन्तर जपना, ऐसा महाराज ने कहा है।" गुरु का आशीर्वाद सफल हुआ। २४ मार्च, १९६० को पिताजी की अपूर्व तथा उच्च समाधि हो गई। हमारे अनुज अभिनंदन कुमार दिवाकर (एडवोकेट) से भक्तामर, सहस्रनाम पाठ सुनते हुए शांतभावपूर्वक उनका स्वर्गारोहण हुआ। आकर्षण १०८ धर्मसागर मुनि महाराज ने आचार्यश्री का संस्मरण सुनाते हुए कहा था-“मैं उस समय छोटा था। मैंने महाराज के "यरनाल में दर्शन किए थे। वे ऐलक थे। यरनाल में उनकी मुनिदीक्षा हुई थी। बाद में महाराज का कोन्नूर में चातुर्मास हुआ था। वह स्थान हमारे गाँव पाच्छापुर से दस मील पर था। रविवार को हमारे स्कूल की छुट्टी रहती थी। उस दिन हम दस मील दौड़ते हुए महाराज के पास कोन्नूर जाया करते थे। उनके दर्शन के उपरान्त शाम को लौटकर घर वापिस आते थे। महाराज के जीवने का आकर्षण इतना था कि उस समय बीस मील का आना-जाना कष्टप्रद नहीं लगता था।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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