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आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज
आचार्य महाराज के स्वर्गवास के पश्चात्, पूर्व में उनके समीप बहुत समय व्यतीत करने वाले मुनिराज १०८ धर्मसागर महाराज का चातुर्मास जबलपुर के निकट बरगी ग्राम में हो रहा था । २४ नवम्बर, सन् १९५५ को मैं उनके पास पहुँचा। वे सामायिक में निमग्न थे । उनकी भव्य, शांत तथा तेजोमय ध्यानमुद्रा मन को अति मधुर तथा आकर्षक लगी। सच्ची सामायिक तो सम्पूर्ण परिग्रहरहित दिगम्बर गुरु के होती है। गृहस्थ के पास साधु की निराकुलता और विशुद्धता स्वप्न में भी असम्भव है।
सामायिक का रहस्य
सामायिक पूर्ण होने के उपरान्त मैंने महाराज को नमोस्तु कहा। उनका पवित्र आशीर्वाद मिला। मैंने पूछा - "महाराज ! आप सामायिक के समय क्या चिन्तवन कर रहे थे ?"
उन्होंने कहा-“हम कुछ नहीं करते थे । राग और द्वेष छोड़कर चुपचाप शांत बैठे थे। इसके सिवाय सामायिक और है क्या ? वास्तव में राग-द्वेष- मूलक आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान के परित्याग को परमागम में सामायिक कहा गया है। स्व. आचार्य महाराज भी आत्मचिन्तवन के लिए वचनालाप छोड़कर शांतचित्त हो चुप बैठने के लिए कहते थे ।” स्वर्गवाससूचक स्वप्न
मैं कुलगिरि की सल्लेखना का सब वृत्तान्त उन्हें सुनाया। उन्होंने कहा - "आचार्य महाराज का १८ सितम्बर सन् १९५५ के प्रभात में स्वर्गवास हुआ था । उसी दिन प्रभात में हमें भी एक स्वप्न आया था । उससे हमने सोचा था कि महाराज अब सम्भवतः स्वर्गवासी हो गये होंगे ।"
मैंने आग्रहपूर्वक स्वप्न का हाल पूछा, तब उन्होंने इस प्रकार कहा- “आचार्य महाराज के स्वर्गारोहण की रात्रि के अंतिम प्रहर में हमें एक अर्थी (शव) दिखायी दी। वह आकाश से हमारे पास आ रही थी । उसके समीप आने पर हमने कहा' णमो अरिहंताणं' पढ़ो। उत्तर में हमें भी ' णमो अरिहंताणं' की ध्वनि सुनाई पड़ी। कुछ काल के पश्चात् वह अरथी अदृश्य हो गई । '
धर्मसागर महाराज ने यह भी बताया था - " स्वर्गवास के आठ दिन पूर्व स्वप्न में आचार्य महाराज दिखे थे। उनके साथ में वर्धमानसागरजी तथा पायसागरजी भी थे । "
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