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________________ ५१४ चारित्र चक्रवर्ती धन-सम्पादन के हेतु कष्ट उठाते हो। ग्राहकी चलने पर तुम अपने शरीर की भी चिन्ता नहीं करते हो। मेरा भी व्यापार है। भव्य जीवों का कल्याण मेरी ग्राहकी है। उनको मोक्ष मार्ग में लगाना मेरी कमाई है, मेरी सम्पत्ति है, मेरी विभूति है। मेरी दुकान के विषय में मुझे विपरीत उपदेश क्यों देते हो ? मैं अपनी मोक्षमार्ग की देशना को बन्द नहीं कर सकता। आँखे बन्द होते-होते भी मैं सर्वज्ञ-वीतराग जिनेन्द्र के शासन की चर्चा नहीं छोडूंगा। यह जिनेन्द्र की वाणी का मंगलमय रस समस्त संकटों और व्याधियों का विनाश करता है। मंगलोत्तम शरणभूत जिनेन्द्र की चर्चा इस जीवन के सिवाय मेरे आगामी जीवन के लिए रसायन रूप है। इससे मेरी आत्मा को पोषण प्राप्त होता है। मैं तुम्हारे व्यापार में बाधा नहीं डालता, तुम मेरे व्यापार में क्यों विघ्न करते हो? तुमको मेरे बीच में नहीं पड़ना चाहिए।" गुरुदेव की पावन स्मृति __ आचार्य महाराज के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उनका उपकार वे सदा स्मरण करते थे। प्रायः उनके मुख से ये शब्द निकलते थे, “मैंने कितने पाप किए ? कौन सा व्यसन सेवन नहीं किया ? मैं महापापी न जाने कहाँ जाता ? मैं तो पापसागर था। रसातल में ही मेरे लिए स्थान था। मैं वहाँ ही समा जाता। मेरे गुरुदेव ने पायसागर बनाकर मेरा उद्धार कर दिया।" ऐसा कहते-कहते उनके नेत्रों में अश्रु आ जाते थे। सच्चे गुरु की सच्ची भक्ति ___ उनके हृदय में गुरु की सच्ची भक्ति थी, सच्चे गुरु की भक्ति थी, सच्चे गुरु की सच्ची भक्ति थी। इससे जैसे गुरुदेव ॐ सिद्धाय नमः"शब्द कहते-कहते परलोक गए, इसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र के पुण्य वातावरण में आत्मचिन्तन करते हुए ये मनस्वी साधु भी स्वर्गवासी हुए। पायसागर महाराज अध्यात्म रस से पूर्ण क्षीरसागर सदृश थे, उनका जीवन समुज्ज्वल आलोकमय था। वे असाधारण तथा लोकोत्तर संतशिरोमणि थे। ******** अद्भुत समाधान एकदिन किसी ने पूछा- “महाराज! कोई व्यक्ति निर्ग्रन्थ मुद्राको धारणकरके उसकेगौरवको भूलकर यदिअकार्य करता है, तो उसको आहार देना चाहिए या नहीं?" __उन्होंने कहा- "आगम का वाक्य है, कि भुक्तिमात्र-प्रदानेतु का परीक्षा तपस्विनाम्-अरे! दो ग्रास भोजन देते समय साधु की क्या परीक्षा करना ? उसको आहार देना चाहिए। बेचारा कर्मोदयवश प्रमत्तबनकर विपरीत प्रवृत्ति कर रहा है। उसका न तिरस्कार और न पुरस्कार ही करें। भक्तिपूर्वक ऐसे व्यक्ति की सेवा नहीं करना चाहिए।" -पृष्ठ-५११, आचार्य पायसागरजी उवाच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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