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________________ श्रमणों के संस्मरण ५१३ अपना कल्याण करना है । अब मैं तुम्हारे लिए अपना समय नहीं दे सकता। मैं अपनी आत्मसाधना के कार्य को नहीं छोड़ सकता । परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव ! परोपकार की स्थिति को छोड़कर अपनी आत्मा का हित साधन कर, ऐसी आगम की आज्ञा की ओर उनका ध्यान था । " मेरा भगवान् मेरे पास है कहते थे - "इतने दिन तो परोपकार किया । उपदेश दिया। धर्म प्रभावना के कार्य किए। अब मुझे दूसरी जगह जाना है। अब अपनी तैयारी करना है। अब तुम्हारी फिकर करने के लिए मेरे पास समय नहीं है। मैं तुम्हें समझाऊँ भी क्या ? तुम भी स्वयं समर्थ हो । तुमको भी अपनी आत्मा से प्रकाश प्राप्त करना चाहिए। बाहरी प्रकाश की जरूरत नहीं है । कम से कम मुझे तो बाहरी वस्तु की जरूरत नहीं है। मेरे पास तो मेरी निधि है, मेरा भंडार है। | मेरा जीवन सर्वस्व है। मेरा भगवान् है । " स्वास्थ्य वार्ता - कभी लोग पूछते थे - "महाराज ! आपका शरीर स्वास्थ्य कैसा है ? वे कहते थे - "इस चिरेरोगी शरीर की कथा क्या पूछते हो ? मेरी आत्मा के स्वास्थ्य की, कुशलता की, प्रसन्नता की बात क्यों नहीं करते हो ? मैं स्वस्थ हूँ, मैं निरोग हूँ, मैं आनन्दमग्न हूँ । शरीर सरोग है या निरोग है, मैं चैतन्यमयी आत्मा इस बात की क्यों चिन्ता करता फिरूँ, शरीर - शरीर है, पुद्गल है, वह अपने गुणधर्म के अनुसार परिवर्तन का खेल दिखाता है। मैं शरीर नहीं हूँ तथा शरीर का सेवक भी नहीं हूँ। मैं अपने स्वरूप का स्वामी हूँ । इस सड़े शरीर की क्यों गुलामी करूँ ?" आत्मध्यान- औषधि 'उनकी आत्म-दृष्टि बहुत उज्ज्वल होती जा रही थी । उस स्वरस में निमग्न होकर उन्होंने कहा- "मैंने औषधिमात्र का त्याग कर दिया है। अब मेरे अंतः बाह्य सभी रोगों की दवा आत्मा का ध्यान है। इस दवा से आत्मा पुष्ट होती है और अनादिबद्ध पुण्य-पाप सभी प्रकार के विकारों का क्षय होकर आत्मा चिरंतन स्वास्थ्य को प्राप्त करती हुई अविनाशी निरोगता को प्राप्त करती है । " उनके भाई चंदप्पा जिनप्पा डोंगरे उनके पास आकर कहने लगे - " अब आपका शरीर संभाषण के योग्य नहीं है। शरीर का ख्याल कर मौन लेना ठीक होगा। अब दूसरों को उपदेश देने की शक्ति आपके शरीर में शेष नहीं है। ' मेरी सम्पत्ति पायसागर महाराज ने कहा- "तुम्हारी बात बड़ी विचित्र है। तुम सब काम को छोड़कर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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