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________________ ५१२ चारित्र चक्रवर्ती थे । समाधि द्वारा ब्रह्मदर्शन करने वाले योगियों के समान पायसागर महाराज की अवस्था हो रही थी । विषयों की निस्सारता का उन्होंने स्वयं आवश्यकता से अधिक अनुभव कर लिया था, इससे उनका हृदय विषयसुखों से पूर्ण विरक्त हो चुका था । वह उस ओर न जाकर सदा अपनी ओर ही उन्मुख रहता था । उनकी अवस्था देखकर रत्नाकर कविरचित भरतेश वैभव में वर्णित चक्रवर्ती भरत महाराज का चित्रण सहज ही नेत्रों के समक्ष आ जाता था। भोगी के समक्ष सदा विषयों का नृत्य होता रहता है। आत्मयोगी की अवस्था निराली होती है । वह सदा आत्मनिधि के सौन्दर्य को देखकर हर्ष प्राप्त करता है । निरन्तर आत्मचिन्तन आत्मध्यान में वे इतने निमग्न रहते थे कि उनको समय का भान नहीं रहता था । कभी-कभी चर्या का समय हो जाने पर भी वे ध्यान में मस्त बैठे रहते थे। उस समय कुटी की खिड़की से कहना पड़ता था कि आपकी चर्या का समय हो गया। इस अवस्था वाले पायसागर महाराज के चित्र से क्या पूर्व के व्यसनी नाटकी रामचन्द्र गोगाककर के जीवन की तुलना हो सकती है ? जिस प्रकार राहु और चन्द्र में तुलना असम्भव है, इसी प्रकार उनके पूर्व जीवन तथा वर्तमान में रचमात्र भी साम्य नहीं था। तप, स्वाध्याय तथा ध्यान द्वारा उनका जीवन सुवर्ण के समान मोहक बन गया था । विलक्षण योगी उनकी विलक्षण अवस्था का वर्णन सुनकर लोगों की समझ में नहीं आयेगा, किन्तु हमने तो प्रत्यक्ष देखा है कि आहार करते-करते कभी-कभी वे चुप खड़े हो जाते थे । वे भूल जाते थे कि उनको आहार करना है। उस अवस्था में कहना पड़ता था - "महाराज ! आपको आहार लेना है", तब उनका ध्यान बदलता था। चेतावनी आहार के समय कभी-कभी कुछ हल्ला हो जाता था, तो आहार के उपरांत कहते थे- “तुम मेरे आत्मविचार में क्यों विघ्न डालते हो ? थोड़ा-सा भोजन देकर मेरी आत्मनिमग्नता को क्यों बाधा देते हो ? यदि तुमने शांति नहीं रखी, तो मुझे तुम्हारी रोटी की परवाह नहीं है। मुझे अपनी आत्मा का कल्याण करना है। याद रखो, मैं शरीर का दास नहीं हूँ। शरीर मेरा नहीं है। मैं क्यों उसकी दासता करता फिरूं ?" स्वोपकारी - उन्होंने अपना आचार्यपद अनन्तकीर्ति मुनि महाराज को दे दिया था, अतः अब तो साधु परमेष्ठी हो गए थे। इससे उन्होंने अपने शिष्यों को कह दिया था कि- “तुम्हें स्वयं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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