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श्रमणों के संस्मरण
५११ समाधि की तैयारी की दृष्टि से उन्होंने ज्वारी की अंबिल लेना शुरू कर दिया था। दूध, दही, शक्कर आदि सभी रसों का परित्याग कर दिया था। शरीर के रोगी रहने से घी मात्र नहीं छोड़ा था। यह क्रम पन्द्रह माह पर्यन्त चलता रहा। वे कहते थे-“अब मुझे अपने जीवन के एक-एक क्षण का उपयोग समाधि के लिए उपयोगी सामग्री के संचय में लगाना है।" अद्भुत समाधान ___ उनसे तत्त्वचर्चा में बहुत आनन्द मिलता था। सदा जैनधर्म के अनुपम रहस्यों की चर्चा चला करती थी।
एक दिन किसी ने पूछा- “महाराज! कोई व्यक्ति निर्ग्रन्थ मुद्रा को धारण करके उसके गौरव को भूलकर यदि अकार्य करता है, तो उसको आहार देना चाहिए या नहीं ?"
उन्होंने कहा-“आगम का वाक्य है, कि भुक्तिमात्र-प्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्-अरे ! दो ग्रास भोजन देते समय साधु की क्या परीक्षा करना ? उसको आहार देना चाहिए। बेचारा कर्मोदयवश प्रमत्तबनकर विपरीत प्रवृत्ति कर रहा है। उसका न तिरस्कार और न पुरस्कार ही करें। भक्तिपूर्वक ऐसे व्यक्ति की सेवा नहीं करना चाहिए।" अपनी समाधि के विषय में
अपने समाधि के बारे में वे बहुधा कहते थे, “मेरी परलोक-यात्रा समाधिपूर्वक, इस प्रकार की होगी कि किसी को भी पता नहीं चल पायेगा। मैं अपने विषय में पूर्ण सावधान हूँ।" उनकी वाणी अक्षरशः सत्य हुई। आश्विन वदी अमावस्या, सन् १९५८ में वे स्वर्गवासी हो गए।
वे आत्मजागरण तथा उपयोग शुद्धि के लिए आत्मा को प्रबोध प्रदान करने वाले थे। वे मंत्रों तथा आगम के वाक्यों का सदा उच्चारण किया करते थे। अपनी अखण्ड शांति तथा आनन्द की धारा को आघात न पहुँचे, इसलिए वे समीपवर्ती शिष्य मण्डली को भी अपने पास आने का निषेध करते थे। आत्मयोगी की अपूर्व चर्या
उनकी आत्म-निमग्नता, आत्म-विचार तथा तत्त्व-चिंतन आदि अद्भुत थे।चलतेचलते वे एकदम रुक जाते थे, पैर नहीं बढ़ते थे। वे ध्यान में खड़े रहते थे। कभी-कभी ऐसा होता था कि वे शौच के लिए रवाना हुए, किन्तु मार्ग में रुककर खड़े हो जाते। लोग देखते थे कि महाराज तो आत्मध्यान में निमग्न हैं। किसी निर्धन को यदि चिंतामणि रत्न मिल जाय, तो वह उस रत्न को बड़े प्रेम, आदर तथा ममता से बार-बार देखकर हर्ष प्राप्त करता है। इसी प्रकार आत्मयोगी पायसागर महाराज विश्व में अनुपम आत्मनिधि को प्राप्त कर जहाँ चाहे वहाँ, जब चाहे तब, उसका दर्शन करते थे, आनंद प्राप्त करते
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