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चारित्र चक्रवर्ती साधुराज ध्यान करने बैठे। ध्यान में वे निमग्न थे। करीब ७.३० बजे लोगों ने देखा, तो ज्ञात हुआ कि महान् ज्ञानी, आध्यात्मिक योगीश्वर पायसागर महाराज इस क्षेत्र से चले गए। पक्षी पिंजड़ा छोड़कर उड़ गया। वास्तव में उन्होंने लोहतुल्य जीवन को स्वर्णरूपता प्रदान कर दिव्य पद प्राप्त किया। आचार्यश्री के विषय में उद्गार ___ आचार्य महाराज में उनकी अपार भक्ति थी। वे कहते थे-“मेरे गुरु चले गये। मेरे प्रकाशदाता चले गये। मेरी आत्मा की सुध लेने वाले गए। मेरे दोषों का शोधन करके उपगूहनपूर्वक विशुद्ध बनाने वाली वंदनीय विभूति चली गई। मेरे धर्म पिता गए। मुझे भी उनके मार्ग पर जाना है।"उनकी समाधि की स्मृति में उन्होंने गेहूँ का त्याग उसी दिन से कर दिया था। उसके पश्चात् उन्होंने जङ्गल में ही निवास प्रारम्भ कर दिया था। वे नगर में पाँच दिन से अधिक नहीं रहते थे। उनकी दृष्टि में बहुत विशुद्धता उत्पन्न हो गयी थी। आत्म-प्रभावना
वे कहते थे-“अब तक मेरी बाहरी प्रभावना खूब हो चुकी। मैं इसे देख चुका। इसमें कोई आनन्द नहीं है। मुझे अपनी आत्मा की सच्ची प्रभावना करनी है। आत्मा की प्रभावना रत्नत्रय की ज्योति के द्वारा होती है। इस कारण मैं इस पहाड़ी पर आया हूँ। मैं अब एकान्त चाहता हूँ !" आत्म-परिवार
अपने आत्म-परिवार के साथ मैं अब एकान्त में रहना चाहता हूँ। शील, संयम, दया, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्यादि मेरी आत्म-परिवार की विभूतियाँ हैं। मैं उनके साथ खेल खेलना चाहता हूँ। इससे मैं असली आनन्द का अमृतपान करूंगा। मैं कर्मो का बन्धन नहीं करना चाहता। गुणों की दीवाली ___ “मैं आत्मगुणों की दीवाली मनाना चाहता हूँ तथा कर्मों की होली करना चाहता हूँ। कर्मों के ध्वंस करने का मेरा अटल और अचल निश्चय है।"
आलंद में इनका चातुर्मास नगर के भीतर न होकर बाहर हुआ था। पहले उनके आहार के उपरान्त भक्त श्रावकगण बाजे-गाजे आदि के द्वारा अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए प्रभावना करते थे। अब पायसागर महाराज ने ये सब बातें बन्द करवा दी। आचार्य महाराज की समाधि के पश्चात् उनकी जीवनदृष्टि में विलक्षण परिवर्तन हो गया था। ऐसा दिखता था कि अब पायसागर महाराज आत्मशुद्धि के पथ पर वेग से बढ़ते जा ग्दे थे। उनका मन वीतगगता के ग्म में निरन्तर निमग्न रहता था।
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