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________________ श्रमणों के संस्मरण ५०६ १. सुविद्वानों की कलह में दुःख की वृद्धि है व कुविद्वानों के संगठन द्वारा पापकलहादि की वृद्धि होकर राष्ट्र का अकल्याण होता है। २. वर्षाकाल में पुष्पों पर विपुल जल डालने की अपेक्षा, ग्रीष्मकाल में अल्पजल का सिंचन करना विशेष महत्वपूर्ण है। ३. आज के निकृष्ट काल में सद्धर्म का पालन करना बड़ी बात है। ४. समृद्धि में दान देने का उतना महत्व नहीं है, जितना दारिद्र्य में थोड़ा भी दान देना गौरवपूर्ण है। ५. आज भगवान् जिनेन्द्र के पवित्र धर्म को बड़ों-बड़ों ने छोड़ दिया है। जैन थोड़े हैं। सम्यक्त्वी और थोड़े हैं, इससे हम संघटन की अपेक्षा दरिद्री हो गए हैं। ऐसी स्थिति में धर्मवृक्ष के लिए वात्सल्य पूर्वक एक लोटा जल डालने सदृश थोड़ी सी सहायता महत्वपूर्ण है। आचार्य पद त्याग _जब १०८ पूज्य पायसागर महाराज अशक्त हो गए, तब उन्होंने अपना आचार्य पद १०८ मुनि अनंतकीर्ति महाराज को प्रदान किया था। आनंदाश्रुओं का प्रवाह कई बार ये आत्मरस में मग्न हो भाषण देते जाते थे। नेत्रों से आनंद की अश्रुधारा बहती जाती थी। श्रोता लोग भी आनंदरस में डूब जाते थे। उनके भी नेत्रों से वह आनंदपूर्ण अश्रुधारा निकल पड़ती थी। ऐसे अलौकिक वक्ता का जीवन में कहीं भी दर्शन नहीं हुआ। आत्मनिन्दा पूर्व में सेवन किए गए दुर्व्यसनों के फलस्वरूप उनका शरीर रोगों का केन्द्र बन गया था। उस सम्बन्ध में वे कहा करते थे-“मैंने जो कर्म किए हैं, उनका फल मुझे ही भोगना पड़ेगा। उसकी कोई औषधि नहीं है।" पाप क्षय के उपाय पापक्षय के उपाय हैं आत्मस्वरूप का चिंतवन करना, ज्योतिर्मय जिनेन्द्र की भक्ति करना तथा अपने स्वरूप को ध्यान में रखना। “सूर्योदय द्वारा जिस प्रकार अंधकार दूर होता है, उसी प्रकार जिनेन्द्र स्मरण तथा आत्मदेव के प्रकाश द्वारा मोह तथा विपत्ति का अंधकार नष्ट होता है। जागृत रहकर सदा आत्मकल्याणार्थ उद्योग करते रहना चाहिए।" मृत्यु की पूर्व सूचना पायसागर महाराज कहते थे-“मेरा समय अब अति समीप है। मैं कब चला जाऊँगा, यह तुम लोगों को पता भी नहीं चलेगा।"हुआ भी ऐसा ही। प्रभातकाल में वे अध्यात्मप्रेमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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