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________________ ५०८ चारित्र चक्रवर्ती की निन्दा किया करते थे। कहा करते थे- “मुनि पशुतुल्य नग्न विचरते हैं। पत्थर की मूर्ति पर दूध डालना महामूर्खता है। जैन लोग महाअज्ञानी हैं।" इनका भाव मिथ्या-तापसी बनने का था, किन्तु गौकाक में आचार्य महाराज के दर्शनमात्र ने इस जीव के जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन करा दिया। जीवन के परिवर्तन का पायसागर महाराज सदृश उदाहरण मिलना भी दुर्लभ है। अद्भुत अभिनेता पहले पायसागरजी के कन्नड़ीभाषाकेरसपूर्ण गीतों का अर्थ न समझते हुए भी कोल्हापुर नरेश शाहू महाराज रात-रात भर जागकर इनके गायन की स्वरलहरी से मस्त हुआ करते थे । उनका संगीत अद्भुत रसपूर्ण रहता था। यथार्थ में वे उस समय मोह की महिमा का प्रसार कर रहे थे। वे ही साधु बनकर जिनधर्म की महिमा के अपूर्व प्रचारक बन गए। अन्धकारमय जीवन आध्यात्मिक ज्योति से जगमगा उठा। पायसागरजी को दिगम्बर मुनिरूप में देखकर पुरानी अवस्था से तुलना करने वाला आश्चर्य के सिन्धु में डूबे बिना नहीं रहता था। पहली अवस्था में यही व्यक्ति ओवरकोट-पेंट पहने, टोप, टाई से अलंकृत, सिगरेट मुँह में दबाए हुए, अंग्रेजी प्रभावापन्नथे और आज दिगम्बर साधुराज के रूप में धर्म की देशना देते हैं। इतना अवश्य है कि पहले भी इनकी रुचि अध्यात्म शास्त्र की ओर ही थी। महान् कलाकार पायसागर महाराज महान् कलाकार थे। वे मुनि बन गए थे, फिर भी उनमें पूर्व की अभिव्यक्ति की कला मोक्षमार्ग के अभिनेता के रूप में दृष्टिगोचर होती थी । भाषण देते समय पायसागर महाराज अपनी वाणी, हस्त, मुखादि की चेष्टाओं द्वारा जब पदार्थ का निरूपण करते थे, उस समय श्रोतागण अत्यन्त शांतभावपूर्वक उपदेशामृत को पीते जाते थे। वे मन्त्रमुग्ध सरीखे हो जाते थे। कहावत है-"मूल स्वभाव जाई ना"- मूल स्वभाव नहीं जाता। इस नियमानुसार पायसागरजी में कुछ विलक्षणता थी। अब उनकी समस्त प्रवृत्तियाँ वीतराग रस को उद्दीपनता प्रदान करती थीं। तत्त्व प्रतिपादन के अनुरूप उनकी चेष्टा भी हुआ करती थी। अपूर्व अभिनय मुनि आदिसागर महाराज ने बताया था कि “पायसागरजी की गृहस्थावस्था अद्भुत थी। उनका अभिनय अपूर्व होता था। यदि कभी वे रङ्गमञ्च पर आकर इधर से उधर एक बार भी जाते थे, तो प्रेक्षकवर्ग हँसते-हँसते थक जाता था।" पत्रों के महत्वपूर्ण अंश उनके पत्र अनुभवपूर्ण रहते थे। उनके पत्रों में से कुछ के अंश यहाँ कहते हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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