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________________ ५०२ चारित्र चक्रवर्ती तोते का आदर्श पक्षियों में तोता एक विलक्षणता धारण करता है, वह उड़ता जाता है और वृक्ष के फल, धान्यादि को खाता जाता है। अन्य पक्षी की तरह उसे बैठने को स्थान नहीं लगता। तोते की तरह विषयों में अनासक्त होकर, जीवन व्यतीत करने वाला शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है। प्रमादी व्यक्ति राजा भरत की अनासक्ति का उदाहरण दे विषयसेवन में प्रवृत्ति करता है। यह भ्रान्त कल्पना है। उपयोगी शिक्षा बुराई अपने आप आती है। उसे दूर करने में उद्योग लगता है। जैसे धन कमाने में परिश्रम करना पड़ता है, पर धन के खोने में कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। दुराचारी बनने में कुछ भी श्रम नहीं लगता है, सदाचारी बनने के लिए आत्मा में शक्ति चाहिए। बुजदिल, डरपोक व्यक्ति ही इन्द्रियों की गुलामी करता है। भाषण का अभ्यास नेमिसागर महाराज ने बताया-“पहले मुझे बोलना नहीं आता था। आचार्य महाराज ने मुझे और पायसागर को भाषण देने को कहा था। पहले बोलते नहीं बनता था, इससे मैं दुःखी होकर जंगल में चला जाता था। वहाँ क्या प्रयोजन सिद्ध होता ? इससे मैंने दसबीस पुस्तकें इकट्ठी की। उनमें से उपयोगी बातों का संग्रह एक कापी में किया। मैं उच्चारण करके उस पाठ को पढ़ा करता था, धीरे-धीरे बोलते बनने लगा।" क्षमा याचना निर्मलता का हेतु है एक दिन नेमिसागर महाराज भक्ति-पाठ पढ़ रहे थे, पश्चात् प्रतिक्रमण पढ़ते समय अपने दोषों की क्षमा माँगने का पाठ पढ़ते थे। मैंने कहा-“महाराज ! आप बड़े हैं। छोटे-से क्षमायाचना करने से आत्मा में क्या लघुता नहीं आती?" उन्होंने कहा-“क्षमा माँगना, प्रणाम करना नहीं है। मन में निर्मलता आने पर क्षमा माँगने के भाव होते हैं। तीर्थकर भगवान एकेन्द्रियादि जीवों से क्षमा माँगते हैं। मलिन मन क्षमा नहीं मागंता, वह क्रोध करता है। क्षमा मांगने पर बदला लेने के दूषित भाव दूर हो जाते हैं। बदला लेने के दूषित भावों के द्वारा कर्मों का बंध होता है। इससे क्षमा माँगना मुमुक्षु मानव का भूषण है, कर्तव्य भी है।" जीवित तपोधर्म उत्तम तप की पूजा के पाठ को पढ़ते हुए मैं अर्घ चढ़ाने को १०८ श्री नेमिसागर महाराज के पास गया और उनको अर्घ चढ़ाया। महाराज ने पूछा-"क्या पूजा समाप्त हो गई ?" मैंने कहा-“महाराज! दशलक्षण पूजा कर रहा था। तप रूप सातवें धर्म की पूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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