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चारित्र चक्रवर्ती
अर्थ : हे देवि सरस्वती ! इच्छित पदार्थ को प्रदान करने में चिन्तामणि समान तुम्हारी वंदना करने वाले मुझको बोधि, सामाधि, परिणाम शुद्धि, आत्म स्वरूप की प्राप्ति तथा मोक्ष- सुख की उपलब्धि हो ।
वासना छोड़ो
वे कहने लगे - " श्वास का रोकना समाधि नहीं है । मन का बाल-बच्चे, धन-धान्य, मकान आदि की ओर नहीं जाना तथा स्वोन्मुख बनना समाधि है। बाह्य पदार्थ न हों, किन्तु उस ओर मन दौड़ा, तो समझना चाहिए कि बाह्य पदार्थ पास में ही है ।” उनके ये उद्गार अनमोल हैं- " वासना है, तो पदार्थ है ही ।" अभ्यास द्वारा वासना पर विजय प्राप्त होती है। चरणों में शुभ चिह्न
उन्होंने बताया- "आचार्य महाराज के पैरों में ध्वजा का चिह्न था । उन्होंने धर्म की ध्वजा फहराकर उस चिह्न की सार्थकता द्योतित की। उनके पाँव में चक्र भी था। इससे वे सदा भ्रमण किया करते थे ।” उनके शरीर में अनेक शुभ चिह्न सामुद्रिक शास्त्रानुसार थे। उनके हाथ में दिव्यदर्शन (Intution) की रेखा देखकर हस्तरेखाविशेषज्ञ आश्चर्यान्वित होते थे। रोग में दृढ़ता
एक दिन नेमिसागर महाराज की पीठ में बहुत दर्द हो गया। उन्होंने दवा नहीं लगाने | जब मैंने आग्रह किया, तो कहने लगे- “आदमी को रोग न होगा, तो क्या पत्थर को होगा ।" मन चंगा तो कठौती में गंगा । हमारे शरीर में अनेक रोग होते हैं, हम परवाह नहीं करते । रोग आओ या जाओ । साधारण बीमारी को डरने लगे, तो क्या होगा ? रोग
भोजन नहीं मिलेगा, तो वह नहीं टिकेगा। भोजन न मिलने पर मेहमान कितने दिन रहेगा ? पैसा पास में रहता है, तो बीमारी में डाक्टर, वैद्य, बम्बई, कलकत्ता सब याद आते हैं। पैसा नहीं है, तो कहाँ का बम्बई, कहाँ का कलकत्ता और कहाँ का डाक्टर ? शरीर के एक अंगुल क्षेत्र में १६ रोग कहे गए हैं। तब फिर किस-किस रोग की फिकर करना ? इससे हम रोग की चिन्ता नहीं करते ।"
विदेश जाने वाले छात्र को उपदेश
नेमिसागर महाराज के पास एक जैन तरुण आया, जो अमेरिका प्रोफेसर होकर जा रहा था। महाराज ने उससे कहा था- ' "तुम अच्छे कुल के हो। अपने कुल की लाज . रखना। अभक्ष्य भक्षण नहीं करना । "
कब पेंशन लोगे ?
सत्तर वर्ष के एक धार्मिक सेठ महाराज के पास आए । नेमिसागर महाराज ने कहा
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