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श्रमणों के संस्मरण
४६९ उस समय क्या सामायिक बनती ? मैंने आठ-दस णमोकार की माला फिराई। इस तरह सामायिक पूरी हुई। उसके पश्चात् आचार्य महाराज के पास यह खबर पहुंची, तब वे बोल उठे-“नेमिसागर तो अग्निकाय का जीव है।" मुझे भीषण गर्मी में भी कष्ट नहीं होता। हमारा शरीर जाड़े को ढीला है।" शांति का उपाय मैंने कहा-“मेरा छोटा-सा प्रश्न है, शांति का क्या उपाय है ?"
उन्होंने कहा- “संकल्प-विकल्प त्यागने से शांति मिलती है। इससे कर्मों का क्षय होता है। परिणामों में जितनी-जितनी विशुद्धता होगी, उतनी-उतनी शांति की उपलब्धि होगी। मलिन परिणामों से शांति दूर होती है और अशांति की जागृति होती है। परिणामों की निर्मलता के लिए सत्संगति चाहिये। विषयभोग की सामग्री का त्याग भी आवश्यक है। संगति के योग्य सज्जन पुरुषों का समागम दुर्लभ रहता है। सत्समागम न मिले, तो अच्छे-अच्छे शास्त्रों का स्वाध्याय मनन करें। ग्रन्थों का अभ्यास भी सत्समागम ही तो है। प्रत्येक ग्रन्थ के भीतर महान् ज्ञानी, संयमी, सत्पुरुष बैठे हैं। इस दृष्टि से जिनवाणी के स्वाध्याय का बड़ा महत्व है।" त्याग में आनन्द
"त्याग के द्वारा मन शांत बनता है। त्याग में सुख है। भोग में दुःख है। यदि शक्ति अल्प है, तो थोड़ा त्याग करो। इन्द्रियों ने जीव को दास बना रखा है। इन्द्रियों के दास न बनकर इन्द्रियों को दास बनाना हितकारी है। मन के भीतर की खराबी दूर करना चाहिए। अन्तर्दृष्टि होने का प्रयत्न करते जाना चाहिए। परिश्रमपूर्वक पढ़ने वाला अज्ञानी भी विद्वान् बन जाता है। आत्मा की ओर रुचि होने पर तुम्हारा मन दूसरी ओर नहीं जावेगा, कारण कि मन की उधर की प्रवृत्ति होती है, जहाँ उसकी रुचि पाई जाती है। भोगों में अरुचि तथा आत्म तत्त्व में रुचि होने पर परिणामों में शांति उत्पन्न होती है।"
पर्दूषण पर्व में व्रत करके लोग अनुभव के आधार पर त्याग को गौरव प्रदान करते हैं व त्याग के जीवन को दिव्य जीवन मानते हैं। मार्मिक पद्य
सामायिक पाठ का यह पद्य नेमिसागर महाराज को प्रिय रहा है। एक धार्मिक सज्जन कहते थे, कुंथुसागर महाराज को भी यह पद्य प्रिय रहा है। इस प्रकार दोनों पुराने साथी साधु इस पद्य द्वारा आनन्द लेते थे -
बोधिः समाधिः परिणामशुद्धि, स्वात्मोपलब्धिः शिवसौख्यसिद्धिः। चिन्तामणिं चिंतितवस्तुदाने, त्वां वंद्यमानस्य ममास्तु देवि ॥
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