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________________ ४८८ चारित्र चक्रवर्ती राजाखेड़ा में जब ५०० गुण्डों के साथ छिद्दी ब्राह्मण आक्रमण के लिये शस्त्रों से सज्जित होकर आने की तैयारी कर रहा था, उस समय आचार्यश्री की अन्तरात्मा को विलक्षण प्रकाश मिला। ठंड के दिन थे, गगनमण्डल में कुछ बादल देख उन गुरुदेव ने आदेश कर दिया कि संघ के त्यागी आज कोठरी के भीतर ही ध्यान करेंगे। १५ मिनिट बाद ही उपद्रव आरम्भ हुआ, किन्तु उपद्रवकारी विफल रहे। वे जिन साधुओं पर उपसर्ग करना चाहते थे, वे तो कमरे के अन्दर थे, इसलिये उनकी दुर्भावनाएँ मन की मन में रह गई।" उस समय पुलिस का अधिकारी महाराज के पास आकर बोला-“इस छिद्दी को क्या करना चाहिये ?आज्ञा दीजिये।" महाराज ने कहा- "मेरी मानोगे क्या?" पुलिस कप्तान ने कहा-“आपकी आज्ञा का हम परिपालन करेंगे।" महाराज बोले-“छिद्दी को छोड़ दो।" इस प्रकार प्राण लेने वाले पर भी प्रेम का भाव धारण करने वाले वे गुरुदेव सचमुच में शान्ति के सागर ही थे। अचिन्त्य आत्मबल आचार्यश्री में एक दूसरी विशेषता उन्होंने बतलाई, वह था उनका आत्मबल । उनका आत्म-विश्वास अचिन्त्य था। जिनवाणी पर श्रद्धा रखकर आत्मबल के आश्रय से वे अपना मार्ग निर्धारण करते थे। उस समय उनके विरुद्ध यदि सारा संसार हो, तो भी उन्हें उसका भय नहीं था। वे अपूर्व आत्मबली सत्यनिष्ठ संत थे। वीरसागर महाराज को भी उष्णता के कारण बहुधा चक्कर आ जाया करते थे। उस मूर्छा की स्थिति में भी उनकी अंगुली जाप करती हुई मालूम पड़ती थी। ओष्ठ भी पंचपरमेष्ठी के नाम की आराधना करते थे। यथा गुरु, तथा शिष्य। हित शत्रु उनके एक भक्त-विद्धान्-त्यागी के समक्ष मैंने महाराज से कहा-“आपके सिर में ब्राह्मी तैल सदृश कोई औषधि अवश्य लगानी चाहिये।"वे बोले-“हमें अपने शरीर की अवस्था मालूम है। ये औषधि बताने वाले, हमारे हितैषी बनकर आते हैं और बाद में बातें सुनाते हैं। मैं तो इनको अपना हित-शत्रु समझता हूँ।" हितैषी के लिये हित-शत्रु शब्द का प्रयोग सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, इसलिए मैंने पूछा-"आपने यह कैसे कहा?" उत्तर-“ये बताते हैं हित और करते हैं हमारे हित का घात। प्रमाद को बढ़ाने वाले कार्यों की ओर मुझे ले जाना चाहते हैं। उनसे मेरा घात होता है। इसलिए मैंने सोचसमझकर इन्हें शत्रु कहा है। इसके पश्चात् वे कहने लगे-“दिवाकरजी ! मेरे पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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