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श्रमणों के संस्मरण “पहिले दिन पाटील पर कोई असर नहीं हुआ। दूसरा दिन आया, फिर भी महाराज आहार को नहीं उठे, क्योंकि पाटील का मन पत्थर की तरह कड़ा है और वह परिवर्तन को तैयार नहीं है। जीवदया से प्रेरित अन्तःकरण और पाटील के उद्धार करने में दृढ़प्रतिज्ञ वे साधुराज और कड़े हो गए। सारी बस्ती में गहरी चिन्ता छाई हुई थी। ऐसे अवसर पर वह पाटील कोल्हापुर भाग गया। तीसरा दिन आया, फिर भी महाराज का आहार नहीं हुआ, तब तो सारे ग्रामवासी बैचेन हो गए। कोल्हापुर जाकर लोग पाटील को पकड़कर लाये और बोले, क्या साधु के प्राण लेना है ? नियम क्यों नहीं लेता है ?' वह वज्रहृदय कोमल बन गया। महाराज के चरणों को प्रणाम कर उसने सर्वदा के लिए पाप का त्याग किया, तब महाराज आहार को उठे। वीरसागर महाराज बोले-“आचार्यश्री के जीवन की ऐसी अनमोल अनेक घटनायें हैं । वे अपने ढंग के एक ही थे, उन सदृश श्रेष्ठ आत्मा का दर्शन कहाँ होगा?" शिष्य बनो
वीरसागर महाराज बोले-“जो अपने को गुरु मानता है, वह उन्नति नहीं कर पाता। शिष्य बनोगे तो तुम्हारा हित होगा। शिष्य बनने पर अपनी गलती मालूम पड़ती है। गुरु बनने पर कैसे पता लगेगा?" प्रश्न-“आचार्य शान्तिसागर महाराज में गुरुपना था या शिष्यपना?"
उत्तर-"हमारे लिए तो वे गुरु ही थे, किन्तु स्वयं को गुरु नहीं मानते थे। अपने को गुरु मानने वाले का कल्याण नहीं है।"अहंकार अर्थात् मद बड़ा दोष है। वह सम्यक्त्व को नष्ट कर देता है। रोग के विषय में अपूर्व दृष्टि
प्रश्न-“महाराज, आपका स्वास्थ्य खराब रहता है, इससे चिन्ता होती है।" उत्तर में महाराज ने यह महत्व के शब्द कहे-“त्यागी को रोग वैराग्य के लिए होता है और भोगी को रोने के लिए।" इसके सिवाय उन्होंने और कछ नहीं कहा। स्वप्न में गुरुदर्शन
प्रश्न-“आचार्य महाराज का कभी स्वप्न में दर्शन होता है क्या ?"
उत्तर-“मनी वसे, स्वप्नी दिसे"- जो बात मन में जमी रहती है, स्वप्न में उसका दर्शन होता है। इस नियमानुसार गुरुदेव का स्वप्न में अनेक बार दर्शन होता है। हमारी उनसे बातचीत भी हुआ करती है। शत्रु पर प्रेम . उन्होंने कहा-"आचार्यश्री का जीवन अनमोल था। उनका अनुभव-ज्ञानं अद्भुतःथा।'
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