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चारित्र चक्रवर्ती अन्तिम दर्शन
पर्वृषण पूर्ण हो गया। भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन महाराज ने हमें कोल्हापुर बुलवाया था, अतः कोल्हापुर के लिए प्रस्थान करते समय मैंने वर्धमान महाराज से आशीर्वाद की प्रार्थना की। आशीर्वाद देते हुए महाराज ने कहा था-"पुरुषार्थ भी करो। हमारा आशीर्वाद तो है ही।" आशीर्वाद
"हमारा तुम्हें यही आशीर्वाद है कि तुम जहाँ भी जाओगे, जैन धर्म की ध्वजा को सदा ऊँचा रखोगे। एक बात और ध्यान में रखना कि यहाँ से जाने के बाद हमारी खबर लेते रहना और जब समाधि का समय निकट रहे, उस समय अवश्य आना।" कुंभोज में अन्तिम प्रयाण
इसके पश्चात् ऐसा विचित्र कर्मोदय आया कि दोबारा वर्धमान स्वामी का दर्शन ही नहीं हुआ। उनकी कुशलता के समाचार पत्रों तथा तार द्वारा प्राप्त करता था। दुर्भाग्यवश २६ फरवरी १९५६ को सायंकाल के समय परमपूज्य १०८ वर्धमानसागरजी महाराज की प्रकृति अकस्मात् बिगड़ गई। उसके पहले वे, उस गुरुवार को, अनेक लोगों के साथ धार्मिक चर्चा करते रहे। थोड़ा-सा ज्वरमात्र था। सन्ध्या को अधिक मल-विसर्जन होने से क्षीणता वृद्धिगत होने लगी। रात्रि भर शरीर क्षीण होता चला गया। शुक्रवार के प्रभात में सामायिक के लिए बैठते-बैठते शरीर अत्यन्त शिथिल हो गया। परलोकप्रयाण का सूचक श्वास चलना प्रारम्भ हुआ।
पंच-नमस्कार का जाप चल रहा था कि ६.३० बजे साम्यभाव पूर्वक पूर्व के देवगोंडा नामधारी एवं वर्तमान के वर्धमानसागर मुनिराज नामवाली ज्योतिर्मयी वीतराग परिणति व विभूषित आत्मा ने ६७ वर्ष वाली देहरूपी जीर्ण कुटी को त्याग करके देव पर्याय प्राप्त की। बंधु-मिलन ___ संयम के माध्यम से देवगोंडा ने देवेन्द्र पदवी प्राप्त की होगी आचार्य शान्तिसागर महाराज ने सकल संयम की समाराधना द्वारा प्राणों का परित्याग किया था। आगम के प्रकाश में देखा जाय, तो संभवतः अब ये दोनों मुनिबन्धु दिव्यलोक में जाकर अवश्य मिले होंगे। उन ऋषिराजों को पुनःपुनः प्रणाम।
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लोकहितार्थ सूचना आचार्य महाराज ने एक स्मरण योग्य बात कही थी-“खुली सभा में ऐसी चर्चायें नहीं चलानी चाहिए, जिससे जनता की दिशाभूल होना सम्भव हो।"
पृष्ठ - ५२३, मुनिवर्य आदिसागर(शेडवाल) उवाच
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