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आचार्यश्री
वीरसागरजीमहाराज मुझे सात अप्रैल १९५७ के प्रभात में जयपुर की खजांची की नसिया में ८२ वर्ष की वय वाले महातपस्वी निर्ग्रन्थ गुरू तथा स्वर्गीय चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांन्तिसागरजी के द्वारा नियुक्त उत्तराधिकारी आचार्य वीरसागर महाराज के पुण्यदर्शन का सौभाग्य मिला। वयोवृद्ध होते हुए भी उनके सारे शरीर में, विशेषतया मुख में एक विशेष दीप्ति दिखाई पड़ती थी, जो उच्च तपस्वियों में पाई जाती है। ___ मैंने उनको प्रणाम किया। उनसे कुछ चर्चा प्रारम्भ हुई। इस चर्चा से मन को बड़ी शांति मिली, अन्तःकरण को अपूर्व आनंद मिला क्योंकि इस चर्चा से विचारों को महत्वपूर्ण सामग्री मिली । उनकी आचार्य शांतिसागर महाराज में अगाध भक्ति थी। मुनि मार्ग के सच्चे सुधारक . ___ आचार्यश्री के संबंध में वे कहने लगे-“आचार्य महाराज ने हम सबका अनन्त उपकार किया है। उन्होंने इस युग में मुनिधर्म का सच्चा स्वरूप आचरण करके बतलायाथा। उनके पूर्व उत्तर में तो मुनियों का दर्शन नहीं था और दक्षिण में जहाँ कहीं भी मुनि थे, उनकी चर्या विचित्र प्रकार की थी। वे दिगम्बर मुनि कहलाते भर थे, किन्तु ऊपर से एक वस्त्र ओढ़े रहते थे। वे मुनि आहार को उस जगह जाते थे, जहाँ उपाध्याय जाकर पहिले से आहार की पक्की व्यवस्था कर लेता था और आकर कहता था वर री स्वामी' (महाराज चलो)। लोगों को पड़गाहने की विधि नहीं मालूम थी। उपाध्याय उस समय मुनि को आहार कराता था और स्वयं भी माल उड़ाता था।"
इस वातावरण को देख शांतिसागर महाराज के मन ने यह अनुभव किया कि यह तो निर्ग्रन्थ मुनि की चर्या नहीं हो सकती। उन्होंने उपाध्याय के द्वारा पूर्व निर्णीत घर में जाना एकदम छोड़ दिया। दिगम्बर मुद्रा धारण कर उन्होंने आहार के लिए विहार करना प्रारम्भ किया। लोगों को विधि मालूम न होने से वे उनको यथा शास्त्र नहीं पड़गाहते थे। इससे महाराज लौट करके चुपचाप आ जाते। शान्त भाव से वह दिन उपवासपूर्वक व्यतीत करते थे। दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। धर्मात्मा गृहस्थों में चिन्ता उत्पन्न हो गई। फिर भी वे नहीं जानते थे कि इनके उपवास का क्या कारण है ? क्योंकि वे गुरूदेव शान्त थे और किसी से अपनी बात नहीं कहते थे। उनकी चर्या को देखकर कोई भी आदिप्रभु के युग को स्मरण करेगा। ऐसी परिस्थति के मध्य जब चार दिन बीत गये, तब ग्राम के प्रमुख
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