________________
अट्ठावन
चारित्र चक्रवर्ती आराधना को छोड़कर अनंतशक्ति के अक्षयभण्डार आनंदमय आत्मा का आश्रय लेना होगा। जड़ पदार्थ की संगति से ही जीव की दुर्दशा होती है। अग्नि जब लोहे की संगति करती है, तब वह लुहार के द्वारा घनों की मार सहन करती है। परमानंद स्तोत्र में लिखा है -
सदानंदमयं जीवं यो जानाति स पण्डितः।
स सेवते निजात्मानं परमानन्द-कारणम्॥ अर्थ : जो जीव को सदा आनन्दमय जानता है, परमार्थ दृष्टि से वह ज्ञानी है, पंडित है। वह श्रेष्ठ आनन्द के कारणस्वरूप अपनी आत्मा की आराधना करता है।
सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव ने इस आत्मा को ज्ञानस्वरूप कहा है। यह आत्मा स्वशरीर प्रमाण है। संसारी जीव कर्मो द्वारा बद्ध है, इससे कर्मो के अनुसार जितना छोटा-बड़ा शरीर प्राप्त होता है, जीव भी उसी प्रकार संकोच विस्ताररूप होता है। आत्मा शरीर के बाहर नहीं है तथा वह शरीर व्यापी है, वह विश्वव्यापी नहीं है, यह जैनागम का कथन अनुभव तथा विज्ञानसम्मत है। अतः आत्मा का चिंतवन करने वाले मानव को अपने शरीर प्रमाण ज्ञानस्वरूप आत्मा का विचार करना चाहिए। महान् योगी पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में आत्मा का स्वरूप इस प्रकार कहा है -
स्व-संवेदन-सुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः ।
अत्यन्त-सौख्यवान् आत्मा लोकालोकविलोकनः॥ अर्थ : यह आत्मा स्व का अर्थात् अपने आपको संवेदन (ज्ञान) के द्वारा भली प्रकार जाना जाता है। यह शरीर प्रमाण है। इस आत्मतत्व का क्षय नहीं होता, यह अविनाशो आनन्द वाला है। यह लोक तथा अलोक का दर्शन करने की सामर्थ्य सम्पन्न है।
शुभचंद्राचार्य ने लिखा है कि यह जीव पशु, मनुष्यादि की पर्यायों में पाया जाता है। उसका कारण यह कर्मोदय है-'सर्वोयं कर्मविक्रमः'। मैं अनंतज्ञानादि सम्पन्न हूँ, इससे विपक्षी कर्म रूप विषवृक्ष को क्यों न जड़मूल से उखाडूं ? किन्तु प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्मम्।' इस अध्यात्म विद्या के यथार्थ रहस्य से अपरिचित अविवेकी अपने को वर्तमान पर्याय में ही पूर्णशुद्ध मानते हैं और सदाचार में अकर्मण्यता दिखाकर पापप्रवृत्तियों में प्रगति करते हैं। अतः मुमुक्षु का कर्तव्य है कि वह वैराग्य भाव को जगाकर आत्मा में प्रवृत्ति करे। पंचाध्यायी (श्लोक २३२, उत्तरार्ध) में सम्यग्दृष्टि का लक्षण कहा है -
वैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभवः स्वयं ।
तवयं ज्ञानिनो लक्ष्य जीवन्मुक्तः स एव च ॥ अर्थ : वैराग्य भाव-श्रेष्ठ उपेक्षा (अनासक्ति रूप) ज्ञान तथा स्वयं अपनी आत्मा का अनुभव करना, ये दो लक्षण सम्यक्ज्ञानी जीव के हैं। वह मानव जीवन्मुक्त कहा गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org