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________________ आमुख उनसठ आत्मज्ञानी में वैराग्य का दिव्यप्रकाश पाया जाता है । उसका अन्तःकरण वैराग्यरूप अमृत से परिपूर्ण रहता है। अन्य धर्मो में भी आत्मतत्व के अभ्यासी के लिए वैराग्य की महत्ता स्वीकार की गई है। - योगसूत्र में लिखा है - " योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ २ ॥ अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ १२ ॥ ( चित्त वृत्ति का निरोध योग है । चित्तवृत्ति की चंचलता का निवारण अभ्यास तथा वैराग्य द्वारा साध्य है ।) गीता में भी कहा है (अध्याय ६, श्लोक ३५) - असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ अर्थ : हे अर्जुन ! इसमें सन्देह नहीं है कि मन चंचल है और उसे वश में करना कठिन है, किन्तु अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा वह वश में किया जाता है। मनोज के द्वारा ध्यान की सामर्थ्य प्राप्त होती है, जिससे अनादिकालीन कर्मो की पर्वतसदृश राशि अंतर्मुहूर्त काल में नष्ट हो जाती है। आत्मविकास के प्रेमी भद्र पुरूषों को जैनाचार्य का यह मार्मिक तथा अनुभवपूर्ण मार्गदर्शन ध्यान देने योग्य है - सङ्गत्यागः कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् । मनोक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजन्मनः ॥ अर्थ : परिग्रह का त्याग करके दिगम्बर मुद्रा स्वीकार करना, राग- -द्वेषादि मनोविकारों का दमन करना, व्रतों का पालन करना, मन तथा इन्द्रियों को जीतना यह ध्यान की कारणरूप सामग्री है। बाह्य धन-धान्यादि सामग्री के होने पर उस ओर सदा आसक्त होता है। उज्ज्वल महापुरुष आसक्तिमूल बाह्यसामग्री को किस हेतु पास रखेगा ? जड़ के त्याग से चैतन्य निखर उठता है । कोई-कोई विषयासक्त व्यक्ति त्यागी जीवन की बुराई बताते हुए कहते हैं, जब भगवान् के ज्ञान में हमारा चारित्ररूप परिणमन आया होगा, तब हम चारित्र धारण करेंगे, मानो इन्होंने भगवान् के साथ इतनी निकटता प्राप्त कर ली है कि भगवान् इनके पास आकर इनको यह कहेंगे- “श्रीमान्जी, उठिये, अब आपका दीक्षाकल्याणक का समय आ गया है ।” मानो भगवान् सर्वज्ञ को इन प्रमादियों ने अपना पहरेदार बना लिया है। ऐसे मोह के गुलाम प्रमादियों के प्रमुख को एक जैन कवि भजन में समझाते हैं: आवै न भोगन तें तोहि गिलान ॥ टेक ॥ तीरथनाथ भोग तजि दीने तिन तें भय मन आन । तू तिनतें कहुँ डरता नही, दीसत अति बलवान ॥ इस प्रसंग में एक उर्दू के शायर की उक्ति स्मरण योग्य है, जो यह बताती है कि आचरण के द्वारा जीवन बनता है। उच्च पद या नीच अवस्था, मनुष्य के आचार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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