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सत्तावन
आमुख अपनी आवश्यकताओं को न्यून करते हुए अपना जीवन व्यतीत करता था, उस पुरूष को दृष्टि भौतिकता मोतियाबिन्दु के रोग से विमुक्त होने से स्वच्छ थी । देशवासियों को स्वेदशी सामग्री का उपयोग करने का उपदेश देने वाले गांधीजी आत्मा के लिए देह को भी परदेशी सोचते थे । जहाँ 'स्व' शब्द आत्मा का वाचक बनता है, वहाँ जड़ देह उस चैतन्य ज्योतिर्मयो आत्मा से भिन्न ही ठहरी, अतः उससे मुक्ति प्राप्त करना ही सच्चे अर्थ में स्वदेशी बनना कहा जायगा । उसी विशुद्ध प्रकाश में अपने देश पर अपना शासन' स्वराज्य' न होकर अपनो आत्मा को भोग तथा विषयों के कुचक्र से छुड़ाकर आत्मा में अवस्थित होना' स्वराज्य' है । उस स्वराज्य को स्वामी महापुराणकार के शब्दों में 'धर्म - साम्राज्य - नायक' भी कहा जाता है । यरवदा जेल में बैठे हुए कैदी शरीरवाले गांधीजी ने सन् १९३० में वे अनमोल शब्द लिखे थे- " आत्मा के लिए स्वदेशी का अंतिम अर्थ सारे सम्बन्धों से आत्यंतिक मुक्ति है । देह भी उसके लिए परदेशी है।” ऐसी स्थिति को प्राप्त कराने की क्षमता अपने हाथ से काते गए सूत से बने खादी के वस्त्र में नहीं है। वह वस्त्र भी परदेशी है। उसके लिए दिशारूपी वस्त्र धारणकर या तो दिगम्बर होना पड़ेगा अथवा वस्त्रमात्ररहित निरम्बर होना आवश्यक होगा। सहस्त्रनाम पाठ में परमात्मा के वाचक शब्दों मे यह कहा है.
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"दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रथेशो निरम्बरः "
अर्थ : भगवान दिशारूपी वस्त्रों को धारण करने से दिग्वास: हैं, पवनरूपी करधनो से समलंकृत होने से वातरशन: हैं, मोह की ग्रन्थि (गाँठ ) रहित होने के कारण निर्ग्रथों के ईश्वर हैं तथा अम्बर अर्थात् वस्त्ररहित होने से निरम्बर हैं ।
इस प्रसङ्ग में गांधीजी के ये उद्गार बड़े अनुभवपूर्ण प्रतीत होंगे - "आदर्श आत्यन्तिक अपरिग्रह तो उसी का होगा, जो मन से और कर्म से दिगम्बर है। मतलब, वह पक्षी की भाँति बिना घर के, बिना वस्त्रों के और बिना अन्नके विचरण करेगा। इस अवस्था को तो बिरले ही पहुँच सकते हैं।" आज जो लोग भौतिक अभ्युदय को अपने जीवन का लक्ष्य बनाए हुए हैं, तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति में कृतार्थता की कल्पना किए हुए हैं, उन भारत के कर्णधारों को अपने पूज्य बापू के इन शब्दों की गहराई हृदयंगम करने का कष्ट करना चाहिये - "सच्चे सुधार का, सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि उसका विचार और इच्छापूर्वक घटाना है । ज्यों-ज्यों परिग्रह घटाइये, त्यों-त्यों सच्चा सुख और सच्चा सन्तोष बढ़ता है। " ( गांधीवाणी, पृ. २५६ )
जैन कवि की यह वाणी सप्राण, विशुद्ध तथा वास्तविक है -
चाह घटी चिन्ता हटी मनुआ बेपरवाह । जिन्हें कछू नहिं चाहिए वे शाहनपति शाह ॥
ऐसी पवित्र तथा परिशुद्ध स्थिति प्राप्त करने के लिए इस जीव को जड़तत्व को
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