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________________ ४७४ चारित्र चक्रवर्ती विवेकी गृहस्थ का पथ गृहस्थ जीवन में षट्कर्मरूपी कृषि, वाणिज्यादि लोहे को धारण करने वाला पुण्यकर्म रूपी सुवर्ण को नहीं छोड़ेगा। उस स्वर्ण का त्याग करने वाला आत्म-रत्न की उपलब्धि के हेतु उद्योग करता है। यदि कोई आदमी लोहे का संग्रह करते हुए, सुवर्ण के त्याग की बात करता है, तो उसे झूठा मानना चहिए, इसी प्रकार पाप-कर्मों में निमग्न रहने वाला यदि पुण्यरूप सुवर्ण को छोड़ने की चर्चा करता है, तो उसे भी विश्वास योग्य नहीं समझना चाहिए। आत्मा का चिन्तन करना कल्याण का सच्चा मार्ग है। जग का चितंन त्याग कर, आत्मा का ध्यान करना चाहिए। चोर पर भी करूणा - आचार्य शांतिसागर महाराज के गृहस्थजीवन की एक घटना पर वर्धमान महाराज ने इस प्रकार प्रकाश डाला था-“एक दिन महाराज, शौच के लिए खेत में गए थे, तो क्या देखते हैं कि हमारा ही नौकर एक गट्ठा ज्वारी चोरी करके ले जा रहा था। उस चोर नौकर ने महाराज को देख लिया। महाराज की दृष्टि भी उस पर पड़ी। वे पीठ करके चुप बैठ गए। उनका भाव था कि बेचारा गरीब है, इसलिए पेट भरने को ही अनाज ले जा रहा है। उस दीन पर विशेष दयाभाव होने से महाराज ने कुछ नहीं कहा, किंतु वह चोर नौकर घर आया और हमारे पास आकर बोला कि अण्णा! भूल से मैं खेत से ज्वार लेकर जा रहा था, महाराज ने मुझे देख लिया, लेकिन कहा कुछ भी नहीं।" दीनों के बंधु वर्धमान महाराज ने बताया था कि-"सदा से गरीबों पर हमारे परिवार का विशेष ध्यान रहता था। लगभग ८० वर्ष पूर्व भयंकर दुष्काल आया था। अनाज नहीं पका था। गरीब लोग नागफणी के मध्य के लाल भाग तक को खाया करते थे। उस दुष्काल के समय हमारे पिताश्री की आज्ञा से हम ज्वारी की एक बड़ी रोटी तथा दालसदृश पेय पदार्थ प्रत्येक व्यक्ति को देते थे। वह दुष्काल बड़ा भयंकर था। रोटी बनाने को दो नौकर रखे थे। गरीबों को भोजन-दान का काम मैं स्वयं अपने हाथ से करता था।" आज के संपन्न व्यक्तियों के सिर लोभ का भूत सवार रहता है, अतः लोकोपकारी तथा गरीबों के कल्याणकारी कार्यों से विमुख हो धन संग्रह की सोचते हैं । उन्हें यमराज के मुख में जाने की बात याद नहीं आती, जब कि सारा संग्रह किया धन यहाँ ही पड़ा रह जाता है। आचार्यश्री के घरेलू जीवन के संस्मरण वर्धमानसागर महाराज ने आचार्य महाराज के बारे में इस प्रकार संस्मरण बतलाये थे: “मैंने उसे गोद में खिलाया, गाड़ी में खिलाया। वह हमारे साथ-साथ खेलता था। बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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