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________________ चारित्र चक्रवर्ती कर स्वच्छता का संरक्षण करता है; उसी प्रकार अंतः शुचिता के परम प्रेमी ये गुरुदेव आलोचना, प्रतिक्रमण आदि अन्तरङ्ग शुद्धि के साधनों का निरन्तर प्रमादरहित हो उपयोग करते रहते थे। मैंने देखा था कि ये मन्दिर में जाकर जिनेन्द्रमूर्ति के समक्ष अपने समस्त कार्यों का कथन इतनी स्वच्छता तथा स्पष्टतापूर्व गम्भीर तथा उच्च स्वर में करते थे, मानों ये प्रतिमा के समीप नहीं, साक्षात् जिनेन्द्र देव के समक्ष ही अपने दोषादि का निर्दोष रूप से निरूपण कर रहे हों। ये " वृषभं त्रिभुवनपति - शतवंद्यं, मंदरगिरिमिव धीरनिंद्यम्” स्तोत्र भगवान् के समक्ष बड़ी भक्ति और तन्मयता के साथ पढ़ते थे । अद्भुत मनोविकल्प ४७२ I एक समय तारीख ३१ अगस्त को छोटे भाई कुंमगोंडा के पुत्र जनगोंडा की पत्नी लक्ष्मीबाई महाराज के पास लगभग १५ मिनट पर्यन्त कुछ चर्चा करती रही । उस समय महाराज के मन में संभवतः ऐसा विकल्प आया कि अपने गृहस्थावस्था के भतीजे की स्त्री से इतनी देर बात करना ठीक नहीं था । मेरा अब कोई लौकिक कुटुम्बी एवं बंधु नहीं रहा है । इससे मुझे लक्ष्मीबाई से विशेष वार्तालाप नहीं करना चाहिए था । आचार्य महाराज तो निर्ग्रन्थ बनने पर मुझे भाई न मानकर भोज का पाटील कहते थे, तब मेरी दृष्टि भी ऐसी ही होनी चाहिए। सम्भवतः कुछ ऐसे महान् विचार उनके मन में आए। उन्होंने शीघ्र कुटी में जाकर बहुत समय तक आत्म-ध्यान किया, पश्चात् समीपवर्ती विचारवान भक्त गृहस्थ से कहने लगे- “ आज बहुत बड़ी भूल हो गई । मैं कहाँ से कहाँ चला गया था ? यथार्थ में मेरा कोई नहीं हैं। मैं भी किसी का कुछ नहीं हूँ ।" उस समय मुझे पता चला कि इनका मन स्फटिक सदृश स्वच्छ है । 1 अत्यन्त सरल लता की मूर्ति थे । एक दिन मेरे भाई डाक्टर प्रोफेसर सुशील दिवाकर का पत्र आया। उसमें महाराज को नमोस्तु लिखा था । मैंने सुनाया - "महाराज, छोटे भाई ने आपको नमोस्तु कहा है । " महाराज ने कहा- “ उनको हमारा आशीर्वाद लिख देना । तुम्हारे घर में भी सबको आशीर्वाद लिख देना । एक बात और ध्यान में रखना, हमारे लिए जो नमोस्तु लिखे, आशार्वाद लिख देना, भूलना नहीं । " मार्मिक उक्तियाँ उसे प्रसाद से वर्धमान क्षयोपशम का सद्भाव सूचित होता था ! Jain Education International For Private & Personal Use Only तुम स्वयं हमारा जब मैं शास्त्र पढ़ता था, उस समय महाराज के मुख से समयोचित तथा अनुभव - पूर्ण अनेक मार्मिक बातें निकलती थी, जिसमें महाराज का उच्च अनुभव और तपस्या के www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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