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________________ श्रमणों के संस्मरण . ४७१ क्षुल्लक के स्थान में ऐलक पद प्राप्त करके इनके हृदय में अपार हर्ष हुआ था। जैसे धनी व्यक्ति की धनलाभ के बाद तृष्णा जागती है, उसी प्रकार इनके मन में यह भाव उत्पन्न होता था-“हे जिनेन्द्र देव! आपके चरणप्रसाद से मुझको शीघ्र ही दिगम्बर अवस्था से परिपूर्ण निर्वाण मुद्रा धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हो।"अंतःकरण की सच्ची भावना फलवती होती है। ऐलक अवस्था में एक वर्ष व्यतीत हुआ। दूसरा वर्ष प्रारंभ हुआ। बारामती में मुनिदीक्षा चातुमार्स पूर्ण होने के उपरान्त मार्गशीर्ष मास में ऐलक वर्धमानसागरजी अपने गुरु देव आचार्य शान्तिसागर महाराज के समीप बारामती पहुँचे और अत्यंत विनयपूर्वक मुनिमुद्रा प्रदान करने की प्रार्थना की। जिनमुद्रा धारण कर, निर्दोष रीति से उसके महान् नियमों का पालन करना इस कलिकाल में बहुत कठिन कार्य है। दूसरी बात यह भी है कि वर्धमानसागर महाराज का ७६ वाँ वर्ष चल रहा था। इतनी वृद्धावस्था में महाव्रत का भार आज का बुद्धिजीवी वर्ग सोच भी नहीं सकता। जगत् तो बूढ़े आदमी का इसी रूप में सर्वत्र चित्र देखा करता है :____ अंगं गलितं पलितं मुंडं दशनविहीनं जातंतुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुंचत्याशा पिण्डम् ॥ ७६ वर्ष में मुनिदीक्षा अतः ७६ वर्ष की वर्धमान अवस्था में वर्धमान महाराज ने मार्गशीर्ष सुदी षष्ठी, सवंत् १८७६ अर्थात् १६३६ में बारामती में मुनिमुद्रा धारण की। चार वर्ष क्षुल्लकपद, एक वर्ष ऐलकपद के पश्चात् मुनि दीक्षा प्राप्त हुई। ऐसे अवसर पर कोई-कोई लोग दोनों आदर्श मुनिबन्धुओं की जननी माता सत्यवती और पिता भीमगोंडा के पवित्र वंश का स्मरण करते थे कि जिनके यहाँ ऐसे त्रिभुवनवंदित और सम्यक्चारित्र समलंकृत दो वीतराग साधुराज उत्पन्न हुए थे। ऐसा सौभाग्य किस वंश को प्राप्त होता है ? मोह का लेश भी उत्पन्न न हो, इससे दीक्षा के पश्चात् गुरु की आज्ञा से वर्धमान मुनि महाराज दक्षिण तरफ चले गए। दोनों सगे भाई साथ-साथ रहते, तो सम्भव है कि मन में मोह का भाव कुछ जागृत हो जाय, इसीलिए प्रतीत होता है कि परम अनुभवी तथा गम्भीर विचारक आचार्य महाराज ने वर्धमान स्वामी को अपने पास आश्रय देना उचित नहीं समझा और इन्हें अन्यत्र रहने का आदेश प्रदान किया। आचार्य महाराज देश,काल आदि पर दृष्टि डालकर सर्व कार्य करते थे। अंतःशुचिता के प्रेमी जैसे बाह्य शुचिता का प्रेमी क्षण-क्षण में साबुन आदि सौंदर्य के प्रसाधनों का उपयोग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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