SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७० चारित्र चक्रवर्ती जाते हैं। इस प्रकार से यह नवीन जन्म तपस्वी के रूप में होता है। कानून में इसे (Civil deth) सिविल डेथ (मृत्यु) माना जाता है। अतः गृहस्थावस्था के छोटे भाई सातगोंडा अब आचार्य शांतिसागर के रूप में हैं, उनका आत्मा ही उनका भाई है, अन्य कोई भाई नहीं है। धर्मगुरु इसी कारण वर्धमान महाराज ने आचार्य महाराज को धर्मगुरु के रूप में ही देखा और अनुभव किया तथा उसी रूप में उनके चरणों की वंदना की। बड़ी नम्रतापूर्वक गुरूचरणों में उन्होंने प्रार्थना की-“महाराज! क्षुल्लक पद लिए चार वर्ष व्यतीत हो गए। अब ऐलक दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिए।" दीक्षा की कठिनता आचार्य महाराज बोले-“यह दीक्षा बहुत कठिन है । तुम्हारी अवस्था भी ७५ वर्ष की हो गई है।" ___ वर्धमान महाराज ने बारंबार विनय कर आचार्यश्री के मन में यह विश्वास उत्पन्न कर दिया कि यदि इनको यह पद दिया गया, तो यह उसे निर्दोष रूप में पालेंगे, फिर भी आचार्य महाराज इनकी दीक्षा के बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार करते रहे। आचार्य द्वारा पात्रता की परीक्षा गजपंथा में वर्धमान महाराज को सोने के लिए रात के समय एक चटाई दी गई थी। वे उस पर न सोकर जमीन पर ही निद्रा ले रहे थे। मध्यरात्री में उठकर आचार्यश्री ने देखा कि वर्धमानसागरजी जमीन पर सो रहे हैं। चटाई अलग है। इससे उनके हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि इनके विरागी मन में सयम के प्रति प्रगाढ़ प्रेम है। आचार्यश्री द्वारा ऐलक दीक्षा अतः आसाढ़ सुदी त्रयोदशी को गुरुप्रसाद से वर्धमानसागर महाराज क्षुल्लक से ऐलक बन गए। अब इनके पास लंगोटी, पिच्छी और कमंडलुमात्र सामग्री रह गई। भौतिक दृष्टि से इनकी अंकिचनता बढ़ी, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से ये विशिष्ट संयमलक्ष्मी के स्वामी बन गए। वाहन-त्याग आचार्य महाराज ने इनको आदेश दिया कि यहाँ से वापिस दक्षिण जाने के पश्चात् फिर कभी मोटर आदि में नहीं बैठना। ये वहाँ से लौटे। इनके हृदय में बड़ी विशुद्धता थी। अपार आनन्द था। जैसे कोई । लखपति-करोड़पति बनने पर अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है । इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy