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________________ ४६८ गहरी विरक्ति वहाँ कलप्पा भरमप्पा निटवे शास्त्री महाराज के पास बैठे थे । वे मुझे नहीं पहिचानते थे। मुझे देखकर शास्त्रीजी ने महाराज से पूछा - "ये कौन हैं ?” चारित्र चक्रवर्ती महाराज ने यह नहीं कहा कि ये हमारे भाई हैं, किन्तु ये भोज के पाटील हैं, ऐसा कह कर परिचय दिया। यह सुनकर हमारे हृदय को धक्का लगा। हमारे नेत्रों में आँसू आ गए। इतनी गहरी विरक्ति तथा अनासक्ति महाराज के मन में विद्यमान थी । महाराज संघ सहित जब शिखरजी के लिए रवाना हुए थे, तब बाहुबली से वे जैसिंगपुर भी पधारे थे। उन्होंने सन् १९२७ में शिखरजी के लिए जब प्रस्थान किया, तब हमारे मन में गहरा वैराग्य उत्पन्न हो गया था । दीक्षा हेतु प्रार्थना उत्तर भारत में विहार करते हुए जब महाराज का चातुर्मास जयपुर में हुआ, तब कुंमगोंडा तथा ब्र० जिनदास समडोलीकर महाराज के दर्शन को गए। उस समय हमने उक्त दोनों व्यक्तियों को कुछ न कहकर साथ में जाने वाले बालगोंडा को कहा कि महाराज को नमोस्तु कहकर उनसे मेरी दीक्षा के लिए प्रार्थना करना । पुत्तूर के नेमिसागर मुनिराज . Jain Education International ..... जयपुर जाकर जब महाराज को मेरी प्रार्थना सुनाई गई, तब महाराज बोले- "क्या अब भी उनके मन में वैराग्य का भाव विद्यमान है ?” इसके प्रत्युत्तर में महाराज से निवेदन किया गया कि-“उनका वैराग्य का भाव पक्का है। उन्होंने पुत्तूर के स्वामी ने मिसागरजी से निर्ग्रन्थ दीक्षा मांगी थी, किन्तु वे आपकी आज्ञा के बिना दीक्षा नहीं देते हैं। इससे आपसे ही दीक्षा देने की प्रार्थना करते हैं ।" इस पर आचार्य महाराज ने पुत्तूर ग्राम वाले नेमिसागरजी को समाचार दिया कि तुम इनको ( वर्धमानसागरजी को ) दीक्षा दे सकते हो । इस प्रसंग में यह बात ज्ञातव्य है कि वर्धमानसागर महाराज ने दीक्षा की स्वीकृति अपने सगे भाई कुमगोंडा पाटील तथा निकट परिचित ब्र० जिनदासजी के द्वारा प्राप्त न कराकर, अन्य व्यक्ति द्वारा यह कार्य क्यों सम्पन्न कराया ? इसमें एक रहस्य है। आत्मानुशासन में कहा है कि :'बंधवो बंधमूलम्' बंधु-बांधव बंध के कारण होते हैं, अतः आत्मसाधना के कार्य में उनसे विघ्नादिक की सम्भावना रहती है। मोहवश इष्ट व्यक्ति जो उपाय बताता है, वह वास्तव में आत्मा के लिए हितकारी नहीं रहता है। इससे वर्धमान महाराज ने अपने बन्धु तथा बन्धु तुल्य व्यक्ति के माध्यम से दीक्षा की अनुज्ञार्थ उद्योग करना उपयुक्त नहीं समझा था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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