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श्रमणों के संस्मरण
४६७ प्रस्थान किया। अद्भुत दृश्य था। पहिले सातगोंडा व देवगोंडा, गृहस्थ रूप में समान वेष वाले थे, अब-सातगोंडा क्षुल्लक हैं और उनके साथ उनके ज्येष्ठ सहोदर चल रहे हैं। अद्भुत युग
वह अद्भुत युग था। महाराज को देने योग्य कमण्डलु तक नथा, अत: पास के लोटे में सुतली बाँधकर उससे कमण्डल का कार्य लिया गया था। देवप्पा स्वामी ने अपनी पिच्छि में से कुछ पंख निकालकर पिच्छी बनाई थी और महाराज को दी थी। विचारक पाठक उस समय की क्या स्थिति थी, यह सोच सकता है।
महाराज कापसी ग्राम में ठहरे । कुमगोंडा ने कहा- "मैं कोल्हापुर जाकर कमण्डलु लाता हूँ। आप भोज जाओ।" भूपालप्पा जिरगे ने एक कमण्डलु भेंट किया। कुंमगोंडा ने कापसी ग्राम में जाकर महाराज को कमंडलु दे दिया।
“महाराज का प्रथम चातुर्मास कोगनोली में हुआ।" घर के सदस्यों की अंतर्दशा
वर्धमानसागर महाराज ने बताया कि घर आने पर महाराज के अभाव में मेरा मन बैचेन हो गया। कुंमगोंडा ने दुकान के सब समान को तथा कपड़ों से भरी आलमारी को इकट्ठे ही एक मारवाड़ी को बेच दिया। उस समय सबका मन अत्यन्त व्यथित हो रहा था। संयम के अभ्यास हेतु प्रेरणा
इसके अनन्तर वर्धमान महाराज ने बताया कि मैं कोगनोली में महाराज के पास गया और दीक्षा माँगने लगा। इस पर महाराज ने कहा-“दीक्षा लेना कठिन काम है। तुम मेरी तरह घर में ही रहकर पहले संयम का अभ्यास करो।" आज जो योग्यता शून्य दीक्षा देने की पद्धति दिखाई दे रही है, उसके बारे में आचार्य शांतिसागर महाराज की दृष्टि स्मरण योग्य है।
घर में आकर मैंने एक बार का आहार रखा। मैं खेती का काम देखता था, तो कुंमगोंडा कहता था-"अण्णा ! अब तुम यह काम मत करो।" कुमगोंडा ने भोज में रहना छोड़कर कोल्हापुर में व्यापार करना प्रारम्भ किया। मैं बहिन कृष्णाबाई के साथ कोल्हापुर आया-जाया करता था। कुमगोंडा अत्यन्त चतुर था। उसने पहले वर्ष साझेदारी में आड़त की दुकान की, पश्चात् अपना स्वतंत्र व्यवसाय प्रारम्भ किया। महाराज के चले जाने से भोज जंगल सरीखा लगने लगा था। ___ कुमगोंडा ने जैसिंगपुर में अपना कार्य जमाया। मैं भी वहीं रहने लगा। मैं ११ बजे से १ बजे दिन तक पर्वत पर ध्यान करता था। मन की चंचलता को रोकता था। मैं सात वर्ष जैसिंगपुर मे रहकर ध्यान का अभ्यास करता था। महाराज (शांतिसागरजी) कुम्भोज बाहुबली आये। वे निर्ग्रन्थ हो चुके थे। मैं उनके दर्शन को वहाँ गया।
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