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चारित्र चक्रवर्ती मस्मक रख दिया और प्रार्थना की-“प्रभो ! आप सदृश साधुराज का हमें ऐसा ही आशीर्वाद प्राप्त हो कि मैं आत्मकल्याण में लग जाऊँ।"
इसके अनन्तर वर्धमान महाराज ने एक अध्यात्मशास्त्र की प्रति सांगली सरकार के पास स्वाध्याय हेतु भिजवाई। उसे पाकर वे अत्यन्त हर्षित हुए थे। सतत अभ्यास का महत्व
आचार्य शांतिसागर महाराज कहते थे, जिस प्रकार बार-बार रस्सी की रगड़ से कठोर पाषाण में गड्ढ़ा पड़ जाता है, उसी प्रकार अभ्यास द्वारा इन्द्रियाँ वशीभूत होकर मन में चंचलता नहीं उत्पन्न करती हैं। सूक्ति है “रस्सी आवत जाततें, सिल पर परत निसान।"
एक बार मैंने आचार्य महाराज से पूछा था कि आप सतत स्वाध्याय करते हैं, क्या मनरूपी बन्दर की चचंलता दूर करने को यह कर रहे हैं ?
महाराज ने उत्तर दिया था कि हमारा मन हमारे आधीन है। वह चंचल नहीं है। अतएव आत्मचिन्तन के विषय में ऐसे योगियों का अनुभव ही जन-साधारण का मार्गदर्शक . बन सकता है। दीर्घजीवन का रहस्य
महाराज ने बताया-“संयमी जीवन दीर्घायुष्य का विशेष कारण है। हम रात को ह बजे के पूर्व सो जाते थे और तीन बजे सुबह जाग जाया करते थे। ३५ वर्ष की अवस्था में हमने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था। हमारे शरीर में कभी रोग नहीं हुआ। गृहस्थ अवस्था में हम एक दिन में ४५ मील बिना कष्ट के सहज ही चले जाते थे । २५ वर्ष की अवस्था में हम भोज से ५.३० बजे सबेरे चलकर शाम को ४५ मील दूरी पर स्थित तेरदल ग्राम में जाकर भोजन करते थे। पहले हमारे शरीर का चमडा इतना कड़ा था कि शरीर से चमड़ा नहीं खिचता था, लेकिन अब तो वृद्धा अवस्था आ गई है। आज के विटामिन भक्तों तथा डाक्टरों के उपासकों को साधुराज के दिव्य जीवन से शिक्षा लेना चाहिए। निरोगता का बीज परिश्रम, ब्रह्मचर्य, परिमित आहार-विहार में है। महाराज ने बताया था कि वे स्नान के पश्चात् देवाराधना के अनन्तर भोजन करते थे और एक बार संध्या को भी भोजन करते थे। बार-बार भोजन की आदत नहीं थी।" वैराग्य का कारण
मैंने पूछा- “महाराज! आपके मन में वैराग्य-भाव जगाने में क्या आचार्य महाराज शान्तिसागर कारणरूप हुए थे ?"
महाराज ने कहा-“यथार्थ में आचार्य महाराज के दीक्षित होने का हमारे मन पर बड़ा असर पड़ा।"
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