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________________ ४६० चारित्र चक्रवर्ती वरांगचरित्र की हिन्दी टीका में लिखा है, सोना, चांदी आदि के कितने ही कलश दूध, दधि, पानी, घी आदि अभिषेक में उपयोगी द्रव्यों से भरे रखे हुए थे। ये सब कलश मुख पर रखे श्रीफल आदि फूलों के गुच्छों तथा पत्तो से ढंके हुए थे। प्रत्येक कलश में मालाएँ लटक रही थी (पृ.२१२, पर्व २३)। भावसंग्रह में आचार्य देवसेन ने दूध, दही आदि द्वारा भगवान् के अभिषेक का वर्णन करते हुए लिखा है (गाथा-४४१) उच्चारि ऊणमंते अहिसेयं कुणउ देवदेवस्य । णीर-घय-खीर-दहियं खिवउ अणुक्कमेण जिणसीसे ॥ उच्चार्य मंत्रान् अभिषेकं कुर्यात् देवदेवस्य । नीर-घृत-क्षीर दधिकं क्षिपेत् अनुक्रमेण जिनशीर्षे ॥ पंडित सदासुखजी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार के ११९ वें श्लोक 'देवादि देवचरणे की टीका में यह महत्वपूर्ण कथन किया है : “बहुरि जे सचित्त द्रव्यनितें पूजन करे हैं, ते जल, गंध अक्षतादि उज्वल द्रव्यनिकरि पूजन करे हैं। अर चमेली, चंपक, कमल, सोनजाई इत्यादि सचित्त पुष्पनि ते पूजन करे हैं। धृत का दीपक तथा कपूर आदि दीपकनिकी आरती उतारे हैं। अर सचित्त, आम्र, केला, दाडिमादिक द्रव्यनि कर हूँ पूजन करे हैं। धूपायनि में धूप दहन करे हैं। ऐसे सचित्त द्रव्यनि कर हूँ पूजन करिए हैं। दोऊ प्रकार आगम की आज्ञा प्रमाण सनातन मार्ग है। अपने भावनि के अधीन पुण्य बंध के कारण हैं।" इससे धर्मात्मा पुरुषों को यह स्वीकार करना होगा कि ऋषिप्रणाली आगम पंचामृत अभिषेक का समर्थन करता है और इसके विरुद्ध आचार्यप्रणीत वाणी का अभाव है। सम्यक्त्वी जीव आगम के अनुसार श्रद्धान करता है। वह वीतराग आचार्यों को पक्षपाती कहने का प्रयत्न नहीं करता। तिलोयपण्णत्ति, भाग २, अ. ५, गाथा १११ में फलों के द्वारा पूजा का कथन आगम प्रेमियों के लिए ध्यान देने योग्य है, आचार्य कहते हैं - “दाख, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके फलों से जिननाथ की पूजा करते हैं। गाथा इस प्रकार है : दक्खा-दाडिम-कदली-णारंगय-मादलिंग-भूदेहिं । __ अण्णे हिं वि पक्के हिं फलेहिं पूजंति जिणणांह ॥ त्रिलोकसार में लिखा है कि धर्मात्मा पुरुष स्वर्ग में उत्पन्न होते ही स्नान के पश्चात् जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा का अभिषेक करते हैं। आगम प्राण धार्मिक बंधुओं को इस आगम वाणी को ध्यान में लाना हितकारी है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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