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________________ श्रमणों के संस्मरण धर्म प्रशंस्य स्नात्वा हृदे अभिषेकालंकारम् । लब्ध्वा जिनाभिषेकं पूजा कुर्वति सदृष्टयः ॥ ५५२।। साधुविरोधी आन्दोलन एक दिन वर्धमान महाराज कहने लगे - " आजकल साधु के चरित्र पर पत्रों में चर्चा चला करती है । उनके विद्यमान अथवा अविद्यमान दोषों का विवरण छपता है । इस विषय में उचित यह है कि अखबारों में यह चर्चा न चले, ऐसा करने से अन्य साधुओं का भी अहित हो जाता है। मार्ग - च्युत साधु के विषय में समाज में विचार चले, किन्तु पत्रों में यह बात न छपे । इससे सन्मार्ग के द्वेषी लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। उन्होंनें यह भी कहा था - " कि किसी भी साधु का आहार बन्द नहीं करना चाहिए। " << ४६१ महाराज ने कहा था- 'मुनि धर्म फार (बहुत) कठिन है। मुनि होकर पैर फिसला, तो भयंकर पतन होता है। नेत्रों को जागृत रखना चाहिए । ज्ञान आदि की बातों में चूक हो गई, तो उतनी हानि नहीं होती, जितनी संयम - पालन में प्रमाद करने पर होती है। तलवार की धार पर सम्हालकर पैर रखा, तो ठीक, नहीं तो पैर नियम से कट जाता है। मुनिपद में चारित्र को बराबर पालना चाहिए।" वैराग्य का जागरण उन्होंने कहा था- "आचार्य शांतिसागर महाराज संघ सहित जब शिखरजी के लिए रवाना हुए, तब हमारे मन में वैराग्य के भाव विशेष थे और हमने महाव्रती बनने हेतु अभ्यास आरंभ किया था ।” अतः उनकी आत्मा अत्यन्त विकसित तथा सुसंस्कृत हो गई थी। इस निष्कर्ष का आधार निम्नलिखित चर्चा है । दशलक्षण पर्व सितम्बर सन् १६५७ का पूर्ण हो चुका था । मैंने प्रभात में गुरुदेव से कहा-“महाराज ! आपके चरणों के समीप पर्व सानंद पूर्ण हो गया । " समन्वयपूर्ण वाणी महाराज बोले-“तुम्हारे आने से लोगों का बड़ा हित हुआ । मिथ्यात्व का त्याग हुआ । धर्म बुद्धि बढ़ी ।" मैंने कहा, मुझे तो आपके दर्शन का अपूर्व लाभ मिला ।” महाराज बोले-“अच्छा, दोनों का लाभ हुआ। तुम्हारा तथा लोगों का भी । " मैंने कहा - " बिलकुल ठीक बात है । " महाराज बोले-“हम खोटी बात क्यों बोलेंगे ?” कितना सुन्दर, मधुर तथा यथार्थ उत्तर था उनका। सत्य महाव्रती साधु' असत्य तथा आगमविरुद्ध भाषण नहीं करते । अद्भुत एकाग्रता मैंने पूछा - "महाराज, कल रात्रि को आपकी कुटी के अत्यन्त समीप मेरा दो घंटे के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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