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चारित्र चक्रवर्ती वे गम्भीरतापूर्वक सोच सकें। हम स्वयं अभिषेक के विरोधी थे, किन्तु आचार्यश्री ने ग्रन्थ का आधार दिखाया, तो हमने हठ न कर आगम की आज्ञा को शिरोधार्य किया। __ हरिवंशपुराण आचार्य जिनसेन स्वामी रचित है। वे महाज्ञानी एवं आगम के मर्मज्ञ दिगम्बर जैन आचार्य हुए हैं। उनके हरिवंशपुराण के बाईसवें सर्ग में कहा है कि वासुपूज्य भगवान के जन्म से पुनीत चम्पापुरी में वसुदेव ने गन्धर्व सेना के साथ फाल्गुन के अष्टाह्निका महापर्व में जिनमन्दिर में जाकर बड़े हर्ष से क्षीर, इक्षुरस, दधि, धृत जलादि के द्वारा जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक किया ? उन्होंने हरिचंदन की गन्ध, शालि, तंदुल, नाना प्रकार के पुष्प, निर्दोष नैवेद्य, दीपक, धूप से भगवान् की पूजा की थी। ग्रन्थ के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं (हरिवंशपुराण, सर्ग २२, श्लोक २१, २२, २३) :
क्षीरेक्षुरस-धारोधै- तदध्युदकादिभिः । अभिषिच्य जिनेन्द्रार्चामर्चितां नृसुरासुरैः ।। हरिचन्दन-गंधाढ्यैर्गन्धशाल्यक्षताक्षतैः । पुष्पैर्नानाविधैरूद्धैधूपैः कालागुरूद्भवैः॥ दीपैर्दीप्रशिखाजालै वेद्यै निरवद्यकैः ।
तावानर्चतुरर्चा तामर्चनाविधिकोविदौ॥ पूजा के अंत में वसुदेव ने अढ़ाई द्वीप के १७० धर्मक्षेत्रों में त्रिकालसम्बन्धी जिनेन्द्रादि की इन भव्य शब्दों द्वारा वन्दना भी की थी :
द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु स-सप्ततिशतात्मके ।
धर्मक्षेत्रे त्रिकालेभ्यो जिनदिभ्यो नमोस्विति॥२७॥ समाज का अत्यन्त आदरणीय ग्रन्थ पद्मपुराण भी इस विषय में हरिवंशपुराण का समर्थन करता है (दौलतरामजी की भाषा-टीका, पृ.३०८, पर्व ३२) :
राम के वनवास के पश्चात् भरत शासन करते थे। भरत ने द्युति नाम के महान् आचार्य के समीप नियम लिया कि “पद्मदर्शनमात्रेण करिष्ये मुनिताम्"- राम के दर्शनमात्र से ही मुनिव्रत धारण करूँगा। उस समय आचार्य द्युति महाराज ने कहा था कि इसके पूर्व तुमको श्रावकों के व्रत धारण करना चाहिए। उन्होंने उपदेश में कहा था-“अरे! जो रात्रि • आहार का त्याग करै, सो गृहस्थ पद के आरंभ विर्षे प्रवृत्तें हैं, तो शुभगति के सुख पावै। जो पुरुष कमलादि जल के पुष्प तथा केतकी, मालती आदि पृथ्वी के सुगन्ध पुष्पनिकरि भगवान कू अरचे सो पुष्पक विमान कू पाय यथेष्ट क्रीड़ा करें।" रविषेणाचार्य रचित मूल पद्मपुराण के वाक्य ध्यान देने योग्य हैं (सर्ग ३२-१५७, १५६):
करोति विभावर्यामाहापरिवर्जनम् । सरिंभप्रवृत्तोपि यात्यसौ सुखंदां गतिं ॥
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